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Sunday, 14 August 2016

ज़िना करने वाले की हिमायत ‘अल्लाह से बगावत’

मजहबे इस्लाम में हर गुनाह के लिए शरई नियम-कानून हैं। जिन पर चलना हर मुसलमान के लिए लाजमी है। यह अलग बात है कि मुल्क में शरई कानून न हो। लेकिन मुल्क में शरई कानून न होने पर भी एक मुसलमान अल्लाह के बनाए कानून को गलत करार नहीं दे सकता। अगर कोई ऐसा करता है तो यह सख्त गुनाह है। ऐसा ही एक गुनाह है जो मुआशरे में आम हो रहा है। ज़िना यानिबलात्कार और आपसी सहमती से बने नाजायज शारीरिक संबंध। ज़िना करने वाले के बारे में अल्लाह ने  साफ तौर पर सजा मुकर्रर कर दी है। लेकिन खुद को बुजुर्ग कहलाने वाले कुछ लोग शरिअत से खिलवाड़ करने की कोशिश कर रहे हैं। इससे वे खुद तो गुनाहगार बन ही रहे हैं, साथ ही मुआशरे में भी ज़िना को आम करने में मददगार बन रहे हैं।शरिअत में ज़िना करने वाले को गैर-शादीशुदा होने परसरेआम सौ कौड़े मारने का हुक्म है। वहीं शादीशुदा ऐसा करे तो उसे संगसार करने का हुक्म है। संगसार यानि सरेआम पत्थर से मार-मारकर हलाक किया जाए। शरीअत के हुक्म को लेकर कुछ लोग गलत समझ रखते हैं, कुछ का कहना है कि ज़िना करने वाले शख्स की बीवी उसेमाफ कर दे तो शरीयत में सज़ा माफ हो जाती है। जबकि ऐसा नहीं है। जो शख्स ज़िना कर रहा है, वह अपनी बीवी से तो हकतल्फी कर ही रहा है। लेकिन उसकी बीवी को यहअख्तियार नहीं कि उसकी सज़ा माफ करा दे। ज़िना करके इंसान अल्लाह से बगावत करता है, इसलिए अल्लाह की तरफ से सज़ा उसपर लाजिम है। खुद को बुजुर्ग कहलाने वाले कुछ लोगों को अक्सर इसतरह के मामलों में कहते सुना जाता है कि इंसान ही तो है, कब तक करेगा, माफ कर दो। क्या यह शरिअत से खिलवाड़ नहीं, क्या यह अल्लाह से बगावत नहीं? जिस शख्स के लिए अल्लाह ने इतनी सख्त सजा मुकर्रर की है, वह शख्स भला कैसे रहम करने लायक हो सकता है। सामाजिक दृष्टि से भी देखें तो जो शख्स आज किसी लड़की या महिला से यह गलत काम कर रहा है, उससे मोहल्ले की लड़कियां कैसे महफूज रहेंगी। जो आज किसी और की बेटी, बहन से ज़िना कर रहा है, इसकी क्या गारंटी है कि कल हवस की निगाहों से वह अपनी ही बहन और बेटी को नहीं देखेगा। यह अलग बात है कि मुल्क में शरई कानून नहीं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं हो जाता कि ऐसे शख्स से रहम किया जाए। हम यह नहीं कह रहे कि मुल्क के कानून को तोड़कर कोई सजा दी जाए, लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि ऐसे शख्स की हिमायत न की जाए। सामाजिक बहिष्कार किया जाना भी बेहतर विकल्प हो सकता है। (मुफ्ती तारिक मसूद की तकरीर से)

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