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Tuesday, 9 August 2016

ताजमहल या तेजोमहालय... क्या है हकीकत?

सोशल मीडिया पर ताजमहल के हिन्दू इमारत होने संबंधी पोस्ट काफी शेयर की जा रही हैं। दरअसल यह मामला उस वक्त उठा जब ‘ताजमहल- सत्यकथा’ नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ। आइये आपको बताते हैं किसने लिखी यह किताब और ताजमहल को हिन्दू इमारत बताने के लिए क्या तर्क दिए गए हैं।ओक ने लिखी थी किताबपुरूषोत्तम नागेश ओक का जन्म उन्हीं की एक पुस्तक में दिए परिचय अनुसार इंदौर, मध्यप्रदेश में हुआ था। श्री ओक ने द्वितीय विश्व युद्ध के समय इंडियननेशनल आर्मी में प्रविष्टि ली, जिसके द्वारा इन्होंने जापानियों के संग अंग्रेज़ों से लड़ाई कीथी। इन्होंने कला में स्नातकोत्तर (एम०ए०) एवं विधि स्नातक (एलएल०बी०) की डिग्रियाँ मुंबई विश्वविद्यालय से ली थीं। सन 1947 से 1953 तक वेहिंदुस्तान टाइम्स एवं द स्टेट्समैन जैसे समाचार पत्रों के रिपोर्टर रहे। 1953 से 1957 तक इन्होंने भारतीय केन्द्रीय रेडियो एवं जन मंत्रालय में कार्य किया। 1957 से 1959 तक उन्होंने भारत के अमरीकी दूतावास में कार्य किया।2007 में हो चुकी है मृत्युश्री ओक की मृत्यु 7 दिसम्बर 2007 को हो गयी। उन्हें पीएन ओक के नाम से भी जाना जाता है।शाहजहां ने किया कब्जा, ताजमहल था शिव मंदिरअपनी पुस्तक ताजमहल: सत्य कथा में, ओक ने यह दावा किया है, कि ताजमहल, मूलत: एक शिव मन्दिर या एक राजपूताना महल था, जिसे शाहजहां ने कब्ज़ा करके एक मकबरे में बदल दिया।ओक कहते हैं, कि कैसे सभी (अधिकांश) हिन्दू मूल की कश्मीर से कन्याकुमारी पर्यन्त इमारतों को किसी ना किसी मुस्लिम शासक या उसके दरबारियों के साथ, फेर-बदल करके या बिना फेरबदल के, जोड़ दिया गया है। उन्होंने हुमायुं का मकबरा, अकबर का मकबरा एवं एतमादुद्दौला के मकबरे, तथा अधिकांश भारतीय हिन्दू ऐतिहासिक इमारतों, यहाँ तक कि काबा, स्टोनहेन्ज व वैटिकन शहर तक हिन्दू मूल के बताये हैं। ओक का भारत में मुस्लिम स्थापत्य को नकारना, मराठी जग-प्रसिद्ध संस्कृति का अत्यन्त मुस्लिम विरोधी अंगों में से एक बताया गया है। के०एन०पणिक्कर ने ओक के भारतीय राष्ट्रवाद में कार्य को भारतीय इतिहास की साम्प्रदायिक समझ बताया है। तपन रायचौधरी के अनुसार, उन्हें संघ परिवार द्वारा आदरणीय इतिहासविद कहा गया है।ओक ने दावा किया है, कि ताज से हिन्दू अलंकरण एवं चिह्न हटा दिये गये हैं और जिन कक्षों में उन वस्तुओं एवं मूल मन्दिर के शिव लिंग को छुपाया गयाहै, उन्हें सील कर दिया गया है। साथ ही यह भी कि मुमताज महल को उसकी कब्र में दफनाया ही नहीं गया था।ताजमहल के हिन्दू शिवमन्दिर होने के पक्ष में ओक के तर्क*.पी०एन० ओक अपनी पुस्तक "ताजमहल ए हिन्दू टेम्पल" में सौ से भी अधिक कथित प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मन्दिर था जिसका असली नाम 'तेजोमहालय' हुआ करता था। ओक साहब यह भी मानते हैं कि इस मन्दिर को जयपुर के राजा मानसिंह (प्रथम) ने बनवाया था जिसे तोड़ कर ताजमहल बनवाया गया। इस सम्बन्ध में उनके निम्न तर्क विचारणीय हैं:*.किसी भी मुस्लिम इमारत के नाम के साथकभी महल शब्द प्रयोग नहीं हुआ है।*.'ताज' और 'महल' दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।*.संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परम्परा चली आ रही हैजैसी मन्दिरों में प्रवेश पर होती है जब कि सामान्यत: किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।*.संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित हैं तथा उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मन्दिर परम्परा में (भी) 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।*.ताजमहल शिव मन्दिर को इंगित करने वाले शब्द 'तेजोमहालय' शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मन्दिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।*.ताज के दक्षिण में एक पुरानी पशुशाला है। वहाँ तेजोमहालय के पालतू गायों को बाँधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गौशाला होना एक असंगत बात है।*.ताज के पश्चिमी छोर में लाल पत्थरों के अनेक उपभवन हैं जो कब्र की तामीर के सन्दर्भ में अनावश्यक हैं।*.संपूर्ण ताज परिसर में 400 से 500 कमरे तथा दीवारें हैं। कब्र जैसे स्थान में इतने सारे रिहाइशी कमरों का होना समझ से बाहर की बात है।कोर्ट में रद्द हो गयी थी याचिकाओक ने याचिका भी दायर की थी। जिसमें उन्होंने ताज को एक हिन्दू स्मारक घोषित करतने एवं कब्रों तथा सील्ड कक्षों को खोलने व देखने कि उनमें शिव लिंग या अन्य मंदिर के अवशेष हैं या नहीं की अपील की। सन 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने ओक की इस याचिका को रद्द कर दिया और साथ ही झिड़की भी दी थी कि उनके दिमाग में ताज के लिए कोई कीड़ा है।

बाबरी मस्जिद का दर्द...

23 बरस बाद बाबरी अविनाश कुमार पांडे ‘समर’ बाबरी कभी एक मस्जिद का नाम होता था, अब इस देश के सीने में पैबस्त खंजर का नाम है. वो खंजर जिसे लेकर एक पूरी पीढ़ी जवान हो गयी. वो जिसने बाबरी को बस तस्वीरों में देखा है, तकरीरों में सुना है. शुक्र है कि मैं उस पीढ़ी का नहीं हूँ. उम्र भले बहुत कम रही हो मैं उन लोगों में से हूँ जिन्होंने बाबरी को देखा है और बारहा देखा है.देखता भी कैसे नहीं, बाबरी और हनुमान गढ़ी दोनों वाली अयोध्या से कुल 28 किलोमीटर दूर गाँव की रिहाइश वाले मेरे लिए बाबरी जिंदगी के मील पत्थरों में से रही है, ठीक वैसे जैसे हनुमान गढ़ी या राम की पैड़ी थी. बचपन में अयोध्या के उस पार नानी के घर आनेजाने और फिर ग्रेजुएशन के लिए इलाहाबाद रसीद हो जाने के बाद वो मील पत्थर जिन्हें पार करना हो होता था, जिनसे हजार यादें पैबस्ता थीं. तब बाबरी चौंकाती थी, कि अखबारों में जब तब उसका जिक्र हवादिस के सबब से ही आता था और यहाँ बाबरी थी, उस अयोध्या में जिसमे कभी कोई दंगा न हुआ था. अयोध्या के पार हम थे उस बस्ती में फिर सेजहाँ कभी कोई दंगा न हुआ था. बाबरी चौंकाती थी कि शहर में सबसे ज्यादा लोगों को रोटी रामनामी और खंड़ाऊं बना के बेच के मिलती थी और ये दोनों ही काम ज्यादातर मुसलमान करते थे. तब समझ नहीं आता था कि सरयू किनारे बसे इस छोटे से मुफस्सिल कस्बे में इसजरा सी इमारत के लिए पूरे साउथ एशिया में फसाद क्यों होते रहते हैं. पर फिर तब ये भी कहाँ पता था कि ये इमारत जरा सी इमारत नहीं सैकड़ों साल का माजी अपने में समाये गंगाजमनी तहजीब का परचम है.उस तहजीब का जिसमे जातिपात से लेकर हजार बुराइयां थीं पर कम से कम मजहब के नाम पर फैलाया जाने वाला जहर नहीं था. बेशक तब भी लोग कभी कभी लड़ लेते थे, अपनी अच्छाइयां और बुराइयाँ दोनों समेटे बैठे आम से लोग थे आखिर, दुनिया में हर जगह लड़ते हैं. पर फिरवे लड़ाइयाँ ख़त्म हो जाती थीं, एक दूसरे से अफ़सोस जता लोग फिर एक हो जाते थे. हाँ, बाबरी को देखते हुएकभी डर न लगता था. ठीक है कि हर अगली बार गुजरने के वक़्त खाकी वर्दियां थोड़ी और बढ़ गयी होती थीं, हर बार बड़ों की आँखों में थोडा और तनाव, थोड़ा और डर पसरजाता था पर बस, बात उतने पर ही ख़त्म भी हो जाती थी. लोगों को यकीन होता था कि मामला अदालत में है, एक दिन फैसला हो ही जाएगा. पर फिर एक दिन फैसला तो हुआ पर अदालत ने नहीं किया, हिन्दू धर्म के स्वयंभू (खुदमुख़्तार) ठेकेदारों ने कर दिया. तैयारी तो वो बहुत पहले से कर रहे थे और अफ़सोस कि उस तैयारी में तब की सरकारें उनसे लड़ नहीं रही थीं बल्कि उनकी मदद कर रही थीं.6 दिसंबर 1992 को बाबरी शहीद की गयी थी पर बस उसी दिन नहीं की गयी थी. बाबरी 1949 में तब भी शहीद की गयी थी जब रातों रात एक तालाबंद कमरे में भगवान् राम की मूर्ति रख दी गयी थी. फिर 1986 में भी जब डिस्ट्रिक्ट जज ने विवादित जगह पर ताले खोल हिन्दुओं को पूजा का अधिकार दे दिया था, उसी जज ने जो बाद में भारतीय जनता पार्टी का सांसद हुआ. बाबरी1989 में भी शहीद हुई थी जब तब की कांग्रेस सरकार ने विवादित जगह के ठीक बगल विश्व हिन्दू परिषद को शिलापूजन (नींव रखने) की इजाजत दे दी थी. 6 दिसंबर 1992 को तो बस ये हुआ था कि बाबरी के साथ बहुत कुछ शहीद हो गया था, अमन, गंगाजमनी तहजीब और लोगों का एक दूसरे में यकीन, बहुत कुछ. पर उससे भी बड़ा था कुछ जिस पर उस दिन हमला हुआ था. ये हमला इस मुल्क में इन्साफ की, हक की रवायतों पर था. बाबरी ऐसे ही नहीं शहीद कर दी गयी थी. बाबरी के शहीद होने के एक दिन पहले सूबे के तत्कालीन भाजपाई मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट को लिखित हलफनामा दिया था कि वे बतौर मुख्यमंत्री बाबरी की हिफाज़त करेंगे.सुप्रीम कोर्ट और तत्कालीन कांग्रेसी केंद्र सरकार ने इस हलफनामे पर यकीन किया और फिर कल्याण सिंह की सरपरस्ती और लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहरजोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा और विनय कटियार जैसे भाजपा/विश्व हिन्दू परिषद के तमाम कद्दावर नेताओं की उपस्थिति में बाबरी जमींदोज कर दी गयी. फिर उस हलफनामे का क्या हुआ? सुप्रीम कोर्ट ने उस पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं की? सुप्रीम कोर्ट ने कार्यवाही की. सालों बाद कल्याण सिंह को अदालत की अवमानना के लिए एक दिन के लिए जेल भेजने की सख्तकार्यवाही की. अभी कल्याण सिंह कहाँ है? अभी कल्याण सिंह भारत के सबसे बड़े सांविधानिक पदों में से एक राज्यपाल पर बैठ देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के मुखिया हैं.6 दिसंबर 1992 को इस देश की अकिलियत का सुप्रीम कोर्ट में, इन्साफ में भरोसा बच भी गया हो तो भी अब वह इसी ऐतबार के साथ कह पाना जरा मुश्किल है. सवाल सिर्फ कल्याण सिंह का नहीं था. बाद में साफ़ ही हो गया कि बाबरी को शहीद करना कोई हादसा नहीं एक सोची समझी साजिश थी. वह साजिश जिसमें हलफनामा देकर केंद्र सरकार को कारसेवकों के आने के पहले उत्तर प्रदेश के निज़ाम को बर्खास्त करने से बचा जा सके. मान भी लें कि इस साजिश में केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव नहीं शामिल थे तो बाबरी पर हमले के बाद उन्होंने तुरंत कार्यवाही क्यों नहीं की? बाबरी छोटीमोटी इमारत नहीं, 400 साल से खड़ी एक मजबूत ईमारत थी, ऐसी की उसे गिराने में घंटों लगे थे. नरसिम्हाराव सरकार हमला होते हीराष्ट्रपति शासन लगा सकती थी, उसने शाम भर और कल्याण सिंह के इस्तीफे (दोनों लगभग साथ ही हुए थे) का इन्तेजार क्यों किया? ऐसा भी नहीं कि केंद्र सरकार के पास फैजाबाद में संसाधन नहीं थे, कमिश्नरी मुख्यालय होने के साथ साथ फैजाबाद हिन्दुस्तानी फौज की डोगरा रेजिमेंट का मुख्यालय भी है और बाबरी की सुरक्षा में उन्हें मोबिलाइज करने में ज्यादा वक़्त न लगता.अफ़सोस यह कि लोगों का, अकिलियत का ही सही, इन्साफ में, अदालतों में, सरकार में यकीन टूट जाए तो बहुत कुछ टूट जाता है. आडवाणी की रथयात्रा ने अपने पीछे हुए दंगों में खून की एक नदी छोड़ी थी. बाबरी की शहादत ने इस नदी को समन्दर में बदल देना था. 6 दिसंबर 1992 के घंटों भर बाद देश सुलग उठा था और इस आग ने कम से कम 2000 हिन्दुस्तानियों को निगल लिया था. पर फिर यह संख्या 2000 भी कहाँ? उसके बादके तमाम दंगे फिर धीरे धीरे नरसंहारों में बदलने लगे थे और अकिलियत का गुस्सा बदलों में. मुझे साजिश के सिद्धांतों में कोई यकीन नहीं पर मैं जानता हूँ कि 1992 के पहले बाहर गए बेटे की माँ, बीबी का पति बम धमाकों के डर से हलकान नहीं रहता था.हिंदुस्तान ने उसके पहले भी तमाम हवादिस झेले थे पर वह उनकी सोच का हिस्सा नहीं बना था. खालिस्तान और ऑपरेशन ब्लू स्टार दोनों होकर गुजर चुके थे पर उनकी लपटें पंजाब और दिल्ली के बाहर तक नहीं पंहुचीं थीं. अबकी वाली आग की जद में पूरा हिंदुस्तान था. पर फिर सिर्फ हिंदुस्तान भी कहाँ? उस दिन के बाद से वो सोया सा कस्बा क़स्बा नहीं, पूरेपूरे साउथ एशिया भर में अकिलियत के लिए डर का दूसरा नाम बन गया. न न, सिर्फ हिंदुस्तान की मुस्लिम अकिलियत के लिए ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश की हिन्दू अकिलियत के भी. यहाँ कुछ करिए और बांग्लादेश के हिन्दुओं की रीढ़ में डर उतरआएगा. आये भी कैसे नहीं, यहाँ की एक मस्जिद, जिसमे इबादत तक बंद थी, का बदला बांग्लादेश के फ़सादियों ने, पाकिस्तान के फ़सादियों ने अपने यहाँ के हिन्दुओं से जो लिया था. बाबरी की शहादत पर, बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर, हिंदुत्ववादी कट्टरपंथ के उभार पर पहले भी बहुत बार लिखा है. जो नहीं लिखा है वह यह कि जब बाबरी ढाई गयी तब मैं आरएसएस के बनाये पहले सरस्वती शिशु मंदिर में पढता था उसी के छात्रावास में रहता था. शिशु मंदिरों के छात्रावासों में शाखा जाना अनिवार्य होता है तो शाखा भी जाता था. खेलना कूदना अच्छा भी लगता था. बौद्धिकों में आने वाले राष्ट्रप्रेम, समरसता जैसे शब्दों को सुनकर लगता था कि ये भले लोग हैं. वैसे भी 13 साल की उम्र बहुत कुछ जानने समझने की कहाँ होती है? पर उस दिन हवाओं में उतर आया तनाव आज भी याद है. आरएसएस का स्कूल होने की वजह से मामला संवेदनशील था, बाबरी पर हमला होते होते तो पुलिस ने हिफाज़त के लिए पूरी तरह से घेर लिया था. फिर शाम तक आचार्य जी (उस्तादों) के चेहरेपर उतर आई मुस्कुराहटों ने बहुत कुछ साफ़ कर दिया था. हाँ उस दिन शाखा नहीं आरएसएस पर प्रतिबंध लगा था.अविनाश कुमार पांडे ‘समर’फिर हम लोग भीतर बुलाये गए कि आज शाखा भीतर लगेगी. मुझे अब भी याद है कि मैंने बस इतना पूछा था कि अपनी थी तो क्यूं ढहा दी? कोर्ट के फैसले का इन्तेजार क्यों नहीं किया? उनकी थी तो क्यों ढहा दी. ये अपने हम और उन के फरक से परे इंसान बनने की राहों पर चलने की शुरुआत थी. उस दिन मन से आरएसएस के अच्छे होने का यकीन भी दरका था और बस यही एक दरकना अच्छा था. आज इतने साल बाद बाबरी को याद करताहूँ तो लगता है कि अपनी कौम, हिन्दुस्तानी कौम, की दिक्कत बस इतनी है कि वह माजी को ज्यादा देर याद नहीं रखता. मुल्क का बंटवारा याद रखा होता, उसमे बहा खून याद रखा होता तो शायद 1984 न होता. 1984 याद रखा होता तो शायद 1992 न होता. हाँ 1992 के बाद की कहानी अलग है. उसके बाद की कहानी हिंदुस्तान के हिन्दू पाकिस्तान बनने की राह पर चल पड़ने की कहानी है. वक़्त अब भी है, काश हम रोक पायें.(लेखक हांगकांग में एशियन ह्यूमनराईट कमीशन के प्रोग्राम कॉ-आर्डिनेटर हैं)

गर्लफ्रेंड पर करा रहा था तंत्र-मंत्र, लेकिन...

प्यार में असफल, व्यापार में परेशानी, शादी न होना, घरेलू झगडे़... यही कुछ कारण हैं जिनसे परेशां लोग अक्सर आमिलों व तांत्रिकों के झांसे में आकर अपनी मेहनत की कमाई के साथ-साथ अपना चैन-सुकून भी गवां देते हैं। रूहानी इलाज, जादू-टोना, काला जादू... ये कुछ ऐसे नाम हैं जिनके नामपर भोले-भाले व परेशां लोगों की मेहनत की कमाई को सरेआम ठगा जाता है। अशिक्षित नहीं, पढ़े-लिखे व उच्च शिक्षित लोग भी बड़ी आसानी से इस मुसीबत में फंस जाते हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक युवक ने हमसे साझा की अपनी कहानी।देते हैं 100 % गारंटी एमकॉम कर चुका एक युवक विदेश से पैसा कमा कर दो वर्ष बाद अपने देश लौटा। इसी दरमियां उसका अपनी गर्लफ्रेंड से ब्रेकअप हो गया। हजार मिन्नतों व समझाने के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ। एक दिन यूं ही सफर के दौरान बस में उसे एक पंपलेट पड़ा हुआ मिला। जिसपर किसी राजस्थान के बाबा का पता व फोन नम्बर लिखा हुआ था। उस विज्ञापन में जादू-टोना, वशीकरण की 100 प्रतिशत गारंटी दी गई थी। इतना ही नहीं काम न होने पर पैसा वापसी की भी पूरी गारंटी थी। युवक को कुछ गड़बड़ तो लगी, लेकिन उसने फिर भी पंपलेट को जेब में रख लिया। तनाव का शिकार युवक की कुछ दिनों बाद उस पंपलेट पर नज़र पड़ी तो उसने सोचा एक बार संपर्क करने में भला हर्ज ही क्या है? यही सोच कर युवक ने दिए गए नम्बर पर संपर्क साधा। ऐसे देते हैं झांसा युवक ने सामने वाले व्यक्ति को अपने परेशानी बतायी। कथित बाबा ने नाम, गर्लफ्रेंड व उसके  मां-बाप का नाम पूछकर दस मिनट में कॉल करने को कहा।युवक ने दस मिनट बाद जब कॉल किया तो जवाब मिला तुम दोनों को अलग करने के लिए किसी ने काला जादू कराया है। इतना सुनते ही पहले से तनाव से ग्रस्त युवक की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। उसने हल मालूम किया तो जबाव मिला तीन हजार रूपये का खर्चा है। 100% गारंटी है चंद घंटों में ही तुम्हारी महबूबा तुम्हारी गुलाम बन जाएगी, जो तुम चाहोगे वो होगा। युवक ने सोच विचार कर जवाब देने के बाद कॉल करने कोकहा। रात भर उसने सोचा और सोचा कि वैसे भी अपने प्यार के बिना तो वैसे ही वह जिंदा नहीं रह सकता, फिर तीन हजार रूपये देने में हर्ज ही क्या है? तीन हजार रूपये की अहमियत उसकी जिंदगी से अधिक तो नहींहो सकती।अगली सुबह युवक ने उस नम्बर पर फिर से कॉल किया और पूछा कि पैसे कैसे पहुंचाने हैं। कथित बाबा ने एक बैंक एकाउंट नम्बर एसएमएस किया। युवक ने बैंक जाकर बताए गए एकाउंट में 3000 रूपये जमा कर दिए। इसके बाद युवक ने फिर से कॉल की तो रात आठ बजे कॉल करने को कहा गया। बताए गए समय पर कॉल करने पर इधर-उधर की तमाम बातों के बाद कहा कि बेटा मैंने वशीकरण कर दिया है, तुम्हें सुबह तक असर दिख जाएगा।मांगे जाते हैं और पैसे युवक उत्सुकता में रात भर नहीं सोया। सुबह 11 बजे कथित बाबा का स्वयं कॉल आया। उसने युवक से कहा कि बेटा तुम्हारे काम में कुछ बाधा आ रही है तुम्हे एक पहाड़ी ऊल्लू की भेंट चढ़ानी होगी। युवक ने पूछा कि ऊल्लू कहां मिलेगा तो जवाब मिलेगा हम ऊल्लू खुदखरीद लेंगे तुम उसी एकाउंट में 6000 रूपये और जमाकर दो।युवक को कुछ अजीब लगा तो उसने अपने एक मित्र को पूरा माजरा बताया। उसके मित्र ने अपने सामने उस नम्बर पर कॉल करने को कहा। इस पर युवक ने कॉल करके कहा कि मैं खुद ऊल्लू खरीद लूंगा क्या करना है बताओ? कथित बाबा गुस्सा हो गया और बोला वो ऊल्लू तुम्हें मिल ही नहीं सकता। अगर 6000 नहीं दे सकतेतो भूल जाओ तुम्हारा काम नहीं होगा। युवक ने कहा उसके पास 6000 रूपये नहीं हैं तो जवाब मिला 3000अब दे दो बाकि काम होने के बाद दे देना। इसी तरह मोलभाव करते-करते कथित बाबा 700 रूपये तक आ गया। युवक रूपये जमा करने जाने लगा। लेकिन उसके मित्र ने उसे रोक लिया और स्वयं बात करते हुए कहा कि पहलेरिजल्ट दिखाओ तब ही पैसा मिलेगा। कथित बाबा ने गालियां व धमकियां देनी शुरू कर दीं। 10 मिनट बाद एक एसएमएस मिला जिसमें लिखा था एक घंटे के अंदर देख लेना मैं तुम्हारे ऊपर काला जादू कर रहा हूं। अब तुम ही जिम्मेदार हो। युवक परेशान हो गया और पैसा जमा करने के लिए जाने लगा। लेकिन उसके मित्र ने उसे रोक लिया। और आज चार माह बीत चुके हैं, वक्त कुछ यूं बदला कि युवक अपने ब्रेकअप के दर्द से बाहर आ गया।फोटो: प्रतीकात्मक

मुल्क की सबसे छोटी उम्र की पायलट हैं ‘आयशा अज़ीज़’

“हर बार जब भी मुझे अपने गाँव जाने का मौका मिलता तो मैं ख़ुशी से भर जाती थी, प्लेन के टेकऑफ और लैंडकरने के वक़्त जहाँ मुझे रोमांच का एहसास होता था वहीँ मेरा भाई बिलकुल डरा हुआ रहता था” यह बात कही है 20 साल की आयशा अज़ीज़ ने अपने इंटरव्यू के दौरान जब वो अपने प्लेन उड़ाने के सपने के शुरू होने की बात करती हैं”।आज हम बात कर रहे हैं एक ऐसी पायलट की जिसके नाम पर देश की सबसे छोटी उम्र में पायलट लाइसेंस अपने नामकरा लेने का रिकॉर्ड दर्ज है। मिलिए आयशा अज़ीज़ से जिसने १६ साल की उम्र में ही प्लेन उड़ाने का वोख्वाब पूरा कर लिया जिसे लेकर वो बचपन से जवानी तक पहुंची थीं।सिआसत की रिपोर्ट के अनुसार मुंबई में रहने वाली 20 बरस की आयशा अज़ीज़ ने शुरू से ही कुछ अलग और अनोखा करने का सपना देखा था। उसके इसी सपने को पहचान उसके माता-पिता ने उसे हाई स्कूल के बाद फ्लाइंग स्कूल में दाखिल करवाया। और जैसे ही आयशा उम्र में 16 साल की हुई तो उसने सभी टेस्ट पास करके स्टूडेंट पायलट लाइसेंस हासिल कर लिया। हालाँकि उसके बाद कमर्शियल पायलट लाइसेंस हासिल करने के लिए आयशा को पैसों की तंगी की वजह से इंतज़ार करना पड़ा लेकिन उसका इंतज़ार जल्द ही खत्म हो गया और आज के वक़्त में आयशा बॉम्बे फ्लाइंग क्लब में बीएससी एविएशन के तीसरे साल की पढ़ाई कर रही 4 लड़कियों में से एक है। और जल्द ही कमर्शियल पायलट्स का लाइसेंस मिलने के बाद किसी बड़ी एयरलाइन के साथ काम करने की तैयारी में है।

14वें बच्चे को जन्म देने के बाद मौत की नींद सो गई थीं मुमताज, शाहजहां से लिए थे ये 2 वादे…

प्रेम के सबसे बड़े प्रतीक ताजमहल को बनवाने वाले शाहजहां की बेगम मुमताज की मौत बेहद दर्दनाक थी। लगभग 30 घंटे तक 14वें बच्चे की प्रसव पीड़ा से जूझने के बाद 17 जून 1631 की सुबह उसने तड़पते हुए प्राण त्यागे थे। शाहजहां, मुमताज से बेहद प्यार करता था। 16 जून, 1631 की रात मुमताज को प्रसव पीड़ा बढ़ गई। मुमताज प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी, उस वक्त शाहजहां डेक्कन के विद्रोह को खत्म करने के बाद कीरणनीति बना रहा था। उसे मुमताज की खराब हालत की सूचना मिली। इस दौरान वह मुमताज के पास नहीं गया। उसने दाइयों को भेजने के निर्देश दिए। 30 घंटे की लंबी जद्दोजहद के बाद मुमताज के आधी रात को एक बेटी गौहर आरा पैदा हुई। लेकिन मुमताज बेहाल थी। शाहजहां को अपने कमरे से कई संदेशवाहक भेजे, लेकिन कोई लौटकर नहीं आया। रात काफी हो चुकी थी। आधी रात से प्यादा का वक्त हो चुका था। शाहजहां ने खुद हरम में जाने का फैसला किया, तभी उसके पास संदेश आया, “बेगम ठीक हैं, लेकिन काफी थकी हुई हैं। बच्ची को जन्म देने के बाद मुमताज गहरी नींद में चली गई हैं। उन्हें परेशान न किया जाए। शाहजहां इसके बाद सोने के लिए अपने कमरे के अंदर चला गया। वह सोने हीवाला था तभी उसकी बेटी जहां आरा वहां पहुंची।द हुक न्यूज़ के अनुसार इसी दौरान तड़प रही मुमताज ने अपनी बेटी जहाँ आरा को पिता शाहजहां के पास बुलाने को भेजा। जब शाहजहां हरम पहुंचा, तो वहां उसने मुमताज को हकीमों से घिरा हुआ पाया। मुमताज छटपटा रही थी। वह मौत के करीब थी। मुमताज ने आखिरी वक्त पर शाहजहां से 2 वादे लिए। पहला वादा शादी न करने को लेकर था। जबकि दूसरा वादा एक ऐसा मकबरा बनवाने का था जो अनोखा हो।मुमताज की देखभाल करने वाली सती उन निसा ने उसके मृत शरीर को रूई के 5 कपड़ों में लपेट दिया। इस्लामिक हिदायतों के वावजूद उसकी मौत पर महिलाएंबुरी तरह रो-रोकर शोक जताती रहीं। मुमताज की मोत से बादशाह ही नहीं पूरा बुरहानपुर गमगीन हो गया था। किले की दीवारें औरतों के रोने की आवाज के भरभरा उठी। मुमताज के शव को ताप्ती नदी के किनारे जैनाबाग में जमानती तौर (अस्थाई) पर दफन कर दिया गया। मौत के 12 साल बाद शव को आगरा के निर्माणाधीनताजमहल में दफन किया गया।

मैसूर के शेर टीपू सुल्तान की असली ताकत उनकी

‘मैसूर का शेर’ कहे जाने वाले टीपू सुल्तान की असली ताकत उनकी रॉकेट प्रौद्योगिकी थी। उनके रॉकेट अंग्रेजों के लिए अनुसंधान का विषय बन गए थे।पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने एक बार बेंगलूर के टीपू सुल्तान शहीद मेमोरियल में अयोजित एक कार्यक्रम में टीपू को विश्व का सबसे पहला रॉकेट अविष्कारक करार दिया था।भारत के मिसाइल कार्यक्रम के जनक एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी किताब ‘विंग्स ऑफ़ फ़ायर’ में लिखा है कि उन्होंने नासा के एक सेंटर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिग देखी थी। कलाम लिखते हैं “मुझे ये लगा कि धरती के दूसरे सिरे पर युद्ध में सबसे पहले इस्तेमाल हुए रॉकेट और उनका इस्तेमाल करने वाले सुल्तान की दूरदृष्टि का जश्न मनाया जा रहा था। वहीं हमारे देश में लोग ये बात या तो जानते नहीं या उसको तवज्जो नहीं देते”।इतिहास के प्रोफेसर केके उपाध्याय के अनुसार टीपूकी सबसे बड़ी ताकत उनकी रॉकेट प्रौद्योगिकी थी। टीपू की सेना ने रॉकेटों के जरिए अंग्रेजों और निजामों को तितर बितर कर दिया था। ये दिवाली वाले रॉकेट से थोड़े ही लंबे होते थे। टीपू के ये रॉकेट इस मायने में क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं कि इन्होंने भविष्य में रॉकेट बनाने की नींव रखी।टीपू की शहादत के बाद अंग्रेजों ने रंगपट्टनम में दो रॉकेटों पर कब्जा कर लिया था और वे इन्हें 18वीं सदी के अंत में ब्रिटेन स्थित वूलविच म्यूजियम आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी के लिए ले गए थे।बीस नवम्बर 1750 को देवनहल्ली (वर्तमान में कर्नाटक का कोलर जिला) में जन्मे टीपू सुल्तान के पिता का नाम हैदर अली था।वह बहादुर और रण चातुर्य में दक्ष थे. टीपू ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने कभी नहीं झुके और अंग्रेजों से जमकर संघर्ष किया।मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेजों को शिकस्त देने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मददकी उन्होंने अंग्रेजों ही नहीं बल्कि निजामों को भी धूल चटाई. अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निजाम ने टीपू से गद्दारी की और अंग्रेजों से मिल गया। मैसूर की तीसरी लड़ाई में जब अंग्रेज टीपू कोनहीं हरा पाए तो उन्होंने टीपू के साथ मेंगलूर संधि की लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों ने उन्हें धोखा दिया।ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के निजाम से मिलकर चौथी बार टीपू पर भीषण हमला कर दिया और आखिरकार चार मई 1799 को श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए मैसूर का यह शेर शहीद हो गया।टीपू ने 1782 में अपने पिता के निधन के बाद मैसूर की कमान संभाली थी। उन्होंने सड़कों सिंचाई व्यवस्था और अन्य विकास कार्यों की झड़ी लगाकर अपने राज्य को समृद्ध क्षेत्र में तब्दील कर दिया था और यह व्यापार क्षेत्र में काफी आगे था। उन्होंने कावेरी नदी पर एक बांध की नींव रखी। इसी जगह पर आज कृष्णासागर बांध है।टीपू सुल्तान का कम से कम एक योगदान ऐसा है जो उन्हें इतिहास में एक अलग और पक्की जगह दिलाता है।टीपू के सांप्रदायिक होने या न होने पर बहस छिड़ी है. लेकिन उसके एक कारनामे को लेकर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है।असल में टीपू और उनके पिता हैदर अली ने दक्षिण भारत में दबदबे की लड़ाई में अक्सर रॉकेट का इस्तेमाल किया। ये रॉकेट उन्हें ज्यादा कामयाबी दिला पाए हों ऐसा लगता नहीं। लेकिन ये दुश्मन में खलबली ज़रूर फैलाते थे। उन्होंने जिन रॉकेट का इस्तेमाल किया वो बेहद छोटे लेकिन मारक थे। इनमें प्रोपेलेंट को रखने के लिए लोहे की नलियों का इस्तेमाल होता था। ये ट्यूब तलवारों से जुड़ी होती थी। ये रॉकेट करीब दो किलोमीटर तक मार कर सकते थे।माना जाता है कि पोल्लिलोर की लड़ाई (आज के तमिलनाडु का कांचीपुरम) में इन रॉकेट ने ही खेल बदलकर रख दिया था। 1780 में हुई इस लड़ाई में एक रॉकेट शायद अंग्रेज़ों की बारूद गाड़ी में जा टकराया था। अंग्रेज़ ये युद्ध हार गए थे।टीपू के इसी रॉकेट में सुधार कर अंग्रेज़ों ने उसका इस्तेमाल नेपोलियन के ख़िलाफ़ किया। हालांकि ये रॉकेट अमरीकियों के ख़िलाफ़ युद्ध मेंकमाल नहीं दिखा सका, क्योंकि अमरीकियों को किलेबंदी कर रॉकेट से निपटने का गुर आता था। 19वीं सदी के अंत में बंदूक में सुधार की वजह से रॉकेट एक बार फिर चलन से बाहर हो गया। 1930 के दशकमें गोडार्ड ने रॉकेट में तरल ईंधन का इस्तेमाल किया।लेकिन भारत की धरती पर रॉकेट तभी वापस आया जब 60 के दशक में विक्रम साराभाई ने भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम शुरू किया।#तीसरी जंग

जहाँ मुसलमान नही वहां हिन्दुओं की लड़ाई दलितों से ह

हिमांशु कुमारहिन्दु की लड़ाई मुसलमानों से है, जिस गांव में मुसलमान नहीं हैं वहां हिन्दुओं की लड़ाई दलितों से है, इसाई कैथोलिक कि लड़ाई प्रोटेस्टेंट से है, सुन्नी मुसलमान की लड़ाई शिया, अहमदिया से हैसूडान , अफ्रीकी देशों में कबीलों में लड़ाई है, जहाँ धर्म की लड़ाई नहीं है, वहां फुटबाल की टीमों के समर्थकों के बीच खूनी लड़ाई है.असल में गड़बड़ आपके अपने भीतर है. खुद को दूसरों से श्रेष्ठ और ऊँचा दिखाने का घमण्ड. आपके दिमाग में घुसा हुआ है. इसालिये आप को एक दुश्मन चाहिये. जिससे आप खुद को बेहतर ,श्रेष्ठ , ऊँचा और सही साबितकर सकेंआपकी इस बीमारी की वजह से दुनिया में खून खराबा है, युद्ध हिंसा दुख तबाही सब आपका पैदा किया हुआ है, जब आप अपने बच्चों को सिखाते हैं, दूसरों को पीछे कर के आगे निकलोतो आप यही सिखा रहे होते है कि तुम्हारे आस पास केलोग तुम्हारे साथी नही बल्कि दुश्मन हैंखुद ही समझिये आपने अपने जीवन को खुद ही कितना हिंसक और दुखी बना लिया हैहिमांशु कुमार की फेसबुक वाल से -सांकेतिक तस्वीर (क्रेडिट - गूगल डॉट कॉम)

कैराना की झुग्गियों मे रिस-रिस कर जिंदगी गुजारते चालीस हजार मुसलमान क्यों नजर नहीआते?

बिजनौर।  2017 विधानसभा चुनाव की तैयारी मे भाजपा ने हवा मे नया शिगूफा खडा किया है..."कैराना से हिन्दू परिवारों का पलायन"...कमाल की बात है जिस मीडिया को कैराना कश्मीर नजर आ रहा है उसी मीडिया को 2013 के दंगे मे विस्थापित होकर कैराना की झुग्गियों मे पडे रिस-रिस कर जिंदगी गुजारते चालीस हजार मुसलमान नजर नही आ रहे है।जबकी भाजपा सांसद द्वारा जारी की गई कैराना के 21 हिन्दू  मर्तको और 241 पलायन किये परिवारों को सूची कोरा गप्प है...जारी की गई सूची मे मदन लाल की हत्या बीस वर्ष पहले,सत्य प्रकाश जैन की 1991 मे, जसवंत वर्मा की बीस वर्ष पहले,श्रीचंद की 1991 मे,सुबोध जैन की 2009 मे, सुशील गर्ग की 2000 मे, डाक्टर संजय गर्ग की 1998 मे हुई थी...गौर करने वाली बात ये है कि लगभग इन सभी हत्याओं मे आरोपी भीहिन्दू समाज से ही है...रही बात पलायन करने वालों की तो जी न्यूज के सुधीर चौधरी को एक बार वो कैम्प भी दिखाना चाहिए जहाँ ये परिवार पलायन करने के बादरह रहे है...लेकिन वो ऐसा नही कर सकते क्योंकि ऐसा दिखाने के लिए कैराना से हिन्दुओं का पलायन होना जरूरी है जो की वास्तविकता मे कही है ही नही....आतंकवादी मीडिया 2013 की तरह एक बार फिर मेरे ईलाके के सौहार्द मे आग लगाकर संघ के ऐजेंडे पर काम कर रही है...और कैराना को कश्मीर प्रचारित करके प्रदेश भर के हिन्दुओं को डरा डराकर उनका वोटभाजपा की झोली मे डालने की मुहिम मे लगी है।

गद्दार कौन ? मुसलमान या मायावती ?

मोहम्मद ज़ाहिद यदि शर्म हो तो चुल्लू भर पानी है डूब मरने के लिए नहीं और शर्म नहीं तो दरिया भी कम है।मायावती दो दिन पहले राज्यसभा और एमएलसी के लिए प्रत्याशियों के नाम तय करने के बाद अपने आवास पर कोआर्डिनेटरों के साथ आगामी विधान सभा चुनाव पर चर्चा करते हुए जो कुछ कहा उसे आप पढ़ें और सोचें कि मुसलमानों की क्या हैसियत है मायावती की नजर में और भाषा से उनके अंदर का भरा ज़हर भी देखिए , जो लोग इस चुनाव में बसपा को समर्थन करने के लिए हाथ पैर मार रहे हैं उनके लिए यह पढ़ना बहुत आवश्यक है।मायावती ने कहा है कि "अगर मुसलमान इस बार ग़द्दारी न करे तो प्रदेश में बसपा बहुमत की सरकार बना सकती है , मुसलमान हमेशा बसपा को धोखा देता है हमें इनसे होशियार रहना है । इसी लिये मैं राज्यसभा और एमएलसी का पद किसी मुसलमान को नहीं दूँगी। पहले 2017 में मुसलमान बसपा को वोट दे कर वफादारी साबित करे । विधानसभा और लोक सभा में हमने मुसलमानों को टिकट दिये मगर मुसलमानों ने हमें वोट नहीं दिया , पार्टी में जो सिस्टम चल रहा है उससे हट कर किसी को टिकट नहीं दिया जायेगा। समाजवादी पार्टी से आम जनता नाराज़ है मगर मुसलमान आज भी सपा से ही चिपका हुआ है। नसीमुद्दीन मुसलमानों को जोड़ने की ज़िम्मेदारी हर बार लेता है मगर जोड़ नहीं पाता । पता नहीं क्यों येमुसलमान होने के बावजूद अपनी पैठ मुसलामानों में आज तक नहीं बना पाया,2007 में हमने बहुमत की सरकारबनाई और नसीमुद्दीन को कई महत्वपूर्ण विभागों का मंत्री बना कर पूरा पावर दिया फिर भी ये मुसलमानोंको बसपा से जोड़ने में असफल रहा है।2014 के लोकसभाचुनाव में मुज़फ्फरनगर दंगों के बावजूद मुसलमानों ने सपा को ही वोट दिया।इसलिए इनपर भरोसा नहीं कियाजा सकता हमने सारे विकल्प खुले रक्खे हैं। 125 सीटों पर उतारे गए मुस्लिम उम्मीदवार ही हमारी सरकार बनवायेंगे। क्योंकि अगर इन सीटों पर बसपा नहीं जीती तो कम से कम सपा उम्मीदवार तो हार जायेगा।इन सीटों पर या तो बसपा या फिर भाजपा जीतेगी हमारा लक्ष्य भाजपा को नहीं सपा को हराना है , कांग्रेस को मुसलमानों ने ही कमज़ोर किया आज की स्थिति में यूपी में कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल पाएगी अगर हम सरकार नहीं बना पाये तो कोई नहीं बना पायेगा भाजपा को मजबूरन बसपा की ही सरकार बनवानी पड़ेगी। दलित बसपा के साथ हमेशा एकजुट रहा है ये कभी गुमराह नहीं होता , मौजूदा विधायकों के टिकट नहीं कटेंगे अगर वो क्षेत्र में काम करें मेहनत करें , अगले माह घोषित प्रत्याशियों को समीक्षा की जायेगी ।कमज़ोर प्रत्याशी बदले जायेंगे"यदि मायावती की रणनीति आप यह पढ़कर अब भी समझ नहीं पाए तो कुछ सेकंड का यह वीडियो देखिए।मायावती मुसलमानों को गद्दार कह रहीं हैं यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्युँकि उनके मान्यवर कांशीराम मुसलमानों को पहले ही गद्दार कह चुके हैं। पर हकीकत में गद्दार है कौन ? आईए कुछ तथ्य सेसमझते हैं , गद्दार वह होता है जो विश्वासघात करता है धोखा देता है । तो मायावती का इतिहास जरा देखिए और सोचिए कि यह किस तरह गद्दार नहीं हैं और मुसलमान क्युँ इनपर भरोसा करे वोट दे ?कांशीराम , मायावती को उत्तर प्रदेश की राजनीति में लेकर तब आए जब बसपा कुछ विधायकों की पार्टी हो गयी थी और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश में 4 दिसम्बर 1993 को मुलायम सिंह यादव बसपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बने थे ।यहाँ से शुरू होता है मायावती की गद्दारी का इतिहास , मायावती की टाॅप 10 गद्दारी का उदाहरण देखें।गद्दारी नंबर 1- मायावती ने मुलायम सिंह से गद्दारी की और भाजपा के साथ जुगलबंदी करती रहीं औरअपनी ही समर्थित सरकार के विरुद्ध साजिश करती हुई 2 जून 1995 को गेस्ट हाऊस में रंगे हाथ भाजपा नेताओं के साथ पकड़ी गयीं , हंगामा हुआ और रात में ही मुलायम सिंह यादव सरकार से समर्थन वापस ले कर अगले दिन बाबरी मस्जिद विध्वंस करने वाली तथा दंगों में मुसलमानों का कत्लेआम करने वाली भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बनीं।गद्दारी नंबर 2- मायावती उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहते लालजी टंडन को अपना भाई बनाती हैं और राखी बाँधती हैं , हाथों से मिठाई खाने खिलाने की फोटो खिंचवाती हैं पर जब भाजपा उनकी सरकार से समर्थन 18 अक्टूबर 1995 को वापस ले लेती है तो वही भाई दुश्मन हो जाता है। राखी के संबंधों के प्रति ऐसी गद्दारी आपने कभी नहीं देखी होगी।गद्दारी नंबर 3 - 1 जून 1996 का दिन और संसद का वह दृश्य याद कीजिए जब 13 दिन की अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार विश्ववासमत प्राप्त कर रही थी तो समर्थन का वादा करके यही मायावती संसद में यह कहते हुए पलट गयीं कि "अटल बिहारी बाजपेयी मेरा यह थप्पड़ आपको जीवन भर याद रहेगा" अटल बिहारी बाजपेयी सरकार1 वोट से विश्वासमत हार गयी और यह वोट मायावती का ही था।गद्दारी नंबर 4- 21 मार्च 1997 को फिर मायावती उसी भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनती हैं तो राखी बाँध कर भाई का संबंध बनाए लालजी टंडन को भूल जाती हैं और आज तक भूली हुई हैं।गद्दारी नंबर 5- 3 मई 2002 में मायावती फिर भाजपाके ही समर्थन से सरकार बनाती हैं और तब तक मुसलमानों का वोट उनको प्राप्त हो चुका था और वह गुजरात दंगों में 2500 मुसलमानों के हत्या के आरोपी नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार के लिए गुजरात जाती हैं।गद्दारी नंबर 6- जिस मान्यवर कांशीराम ने उनको राजनैतिक जन्म दिया उनके ही परिवार वालों के साथ गद्दारी की , कांशीराम के साथ गद्दारी की और स्वघोषित अध्यक्ष बन कर बसपा पर कब्जा कर लिया।गद्दारी नंबर 7- कांशीराम के एक एक विश्वसनीय लोगों को चुन चुन कर पार्टी से धकिया कर बाहर कर दिया , जिन लोगों ने बसपा को अपने जी जान से सीच कर बड़ा किया उनके साथ मायावती ने गद्दारी करके उनकी राजनैतिक हत्या कर दी।गद्दारी नंबर 8 :- मायावती तो अपने उन दलित समाज की भी गद्दार हैं जिनके 21 % वोट लेकर सत्ता की मलाई खाती रही हैं , दलित समाज में खुद को देवी के रूप में महिमामंडित करतीं , पुजवातीं मायावती ने दलित आंदोलन को ही कुचल कर रख दिया , दलित अब भी उसी स्थिति में है या केन्द्र सरकार के दिए आरक्षण के कारण कुछ बेहतर स्थिति में है।गद्दारी नंबर 9 :- अपने धर्म से ही मायावती ने गद्दारी की और "तिलक तराजू और तलवार , इनको मारो जूता चार" का नारा देती रहीं।गद्दारी नंबर 10 :- जूता मारते मारते उन्हीं तिलक तराजू और तलवार वालों की गोद में बैठकर उस नारे के साथ गद्दारी की।मोहम्मद ज़ाहिद गद्दार कारनामों का इतिहास रखे मायावती यदि मुसलमानों को गद्दार कहती हैं तो उनके अंदर का ब्राह्मणवादी जहर ही दिखता है जो यह भी नहीं देखताकि वोट किसे दे और किसे नहीं यह देश के हर नागरिक का अधिकार है , वोट किसी को ना देना मुसलमानों का लोकतांत्रिक अधिकार है , और गद्दारी का इतिहास रखने वाली मायावती खुद अपना इतिहास देखें और सोचें कि मुसलमान उनको क्युँ नहीं वोट देता , उनकी गद्दारी से खंडित हो गये विश्वास को मुसलमानों से माफी माँग कर कायम करें , हम तो कट मर कर भी कांग्रेस और मुलायम के साथ रहते हैं इसलिए मायावती जी वफादारी आपको साबित करनी होगी मुसलमानों से क्युँकि गद्दारी का इतिहास आपका है हमारा नहीं।सोचिएगा कि 21% वोटों की मालकिन अन्य 21% वोटों (मुसलमानों) को कैसे और किस हिम्मत से गद्दार कह रही है ? क्युँकि उनका 21% एकजुट है और हम बिखरे हुए , एक होते तो कालर पकड़ कर पूछ लेते कि कौन है गद्दार ??

बीफ के निर्यात को बढ़ावा देकर गौहत्याये करवा रहे है मोदीः शंकराचार्य स्‍वामी नरेंद्रांनद

नई दिल्ली।  प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी द्वारा दिए गए गौरक्षक के खिलाफ बयान पर शंकराचार्य स्वामी नरेंद्रांनद सरस्वति ने कटाक्ष करते हुए पीएम के बयान की कड़ी शब्दो मे निंदा की। ज्ञात रहे कि मोदी की इस बयान पर अखिल हिंदू महासभा ने भी उनका विरोध किया था। जिसमे उन्होने कहा था कि यदि कोई एक गौरक्षक पकड़ा गया तो वह उसका विरोध करेंगे। अब काशी सुमेरू पीठ के शंकराचार्य ने भी मोदी के बयान की निंदा की है।

हिन्दखबर की रिपोर्ट के अनुसार शंकाराचार्य स्वामी नरेंद्रांनद सरस्वति ने मोदी के बयान पर प्रहार करते हुए कहा कि मोदी ने जो बयान दिया है कि गौरक्षक का चोला पहन कर फर्जी लोग घूमते है और उनके खिलाफ राज्य सरकारो से कार्रवाई करने को कहा है तो इस से ऐसा लगता है कि वह गौरक्षक को गिरफ्तार कराके गौहत्यायो मे वृद्धि कराना चाहते है। जब राज्य सरकारे गोरक्षको को गिरफ्तार करेगी तो गौहत्या करने वालो का उससे उत्साह बढ़ेगा जिसका परिणाम होगा गौहत्याओ मे वृद्धि।
जैसा कि आजम खान ने भी पहले कहा था कि बीफ पर बैन लगाने वाले पांच सितारा होटलो मे बीफ पर प्रतिबंध क्यो नही लगाते। इसी प्रकार शंकराचार्य ने भी पीएम को संबोधित करते हुए कहा कि क्या पीएम नही देख सकते कि दिल्ली के पांच सितारा होटलो मे बीफ बिक रहा है?

उन्होने कहा कि सबसे अधिक इस विषय पर वीएचपी, गौ संवर्धन परिषद् और आरएसएस बाते करते है, तो क्या यह तीनो दल ही यह दुकाने चलाते रहे है? पीएम कहते है कि गौरक्षा के नाम पर चल रही दुकानो को बंद किया जाना चाहिए।इस बयान से गौरक्ष के अपमान साथ-साथ (जो कि गौवमाता की रक्षा के लिए अपनी जीवन का बलिदान तक करने के लिए तैयार है) गौहत्या मे इजाफा होगा और गौहत्यारो को आर्थिक लाभ पहुंचेगा। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अब बीजेपी मुस्लिम वोट अपने पक्ष मे करने की तैयारी कर रही है ।

उधर मोदी के इस बयान से वीएचपी भी नाराज है। उत्तर प्रदेश आगरा की विश्व हिंदू परिषद की युनिट के उपाध्यक्ष सुनील पराशर ने कहा मोदी ने ऐसा बयान देकर गौरक्षकों का अपमान किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अब प्रधानमंत्री मोदी का दिल बदल गया है। लेकिन मैं अब भी यही कहूंगा कि पूरे देश में गौ हत्या पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए। मोदी को अगले लोकसभा चुनाव में इसकी कीमत चुकानी ही होगी।’

मुसलमानों को अदालत में इंसाफ नही मिलता, उन्हें सिर्फ फैसला सुनाया जाता है!

मुजफ्फरनगर दंगों के तिहरे हत्याकांड के दस आरोपियों को सबूतों के अभाव में और गवाहों के अदालत में मुकर जाने के चलते बरी कर दिया है। सवाल किससे करें ? उन तीनों मृतकों से जिन्हें मार दियागया ? या फिर मी लोड से ? चलिये मी लोड से ही सवाल कर लेते हैं कि आखिर आस मोहम्मद उसकी पत्नी और उनके बच्चे का कत्ल किसने किया है मी लोड ? याद रखिये अदालत ने सिर्फ फैसला सुनाया है न्याय नहीं दिया है। 10 आरोपियों को कोर्ट ने बेगुनाह मानते हुए बरी कर दिया। कोर्ट का फैसला आते ही तरन्नुम कानपुरी की चंद पंक्तियाँ मेरे जहन में आ गईं। वाकई तरन्नुम कानपुरी ने सच लिखा है...इंसाफ की उम्मीद अदालत से मत रखना।इस दौर में कातिल की सजा कोई नही है।।क्या पेश करूँ इस दौर मुंसिफ की नजर में।कातिल वही है जिसकी खता कोई नही है।।मेरे लेखों की हमेशा आलोचना होती है और मुझे यकीन है कि आज फिर इस लेख की लोग आलोचना करेंगे। खैर आलोचना से मुझे कोई फर्क नही पड़ता। मुझे जो लिखनाहै वो लिखूंगा और लिखता रहूँगा। इस दौर में बेकुसूर मुसलमान को आतंकी बनने या बनाने में देर नही लगती है। आतंकी संगठन से सम्बन्ध रखने के शक में अब्दुल रहमान को पुलिस ने गिरफ्तार किया और 8 साल जेल में बिताने पड़े। विशेष जज शाह रिजवी ने सबूतों की कमी के कारण गुरुवार को रहमान को बरी कर दिया। कोर्ट ने पिछले साल अक्टूबर में इसी मामले के 6 अन्य आरोपियों को भी सबूत के अभाव में बरी कर दिया था।यूपी पुलिस की एसटीएफ (स्पेशल टास्क फोर्स) ने हूजी से संबंध रखने और आतंकी हमले करने की योजना बनाने के आरोपों पर 2007-2008 के बीच 7 लोगों को गिरफ्तार किया था। एसटीएफ ने दावा किया था कि आरोपियों ने यूपी में रेलवे स्टेशन, धार्मिक स्थलों और बस स्टैंडों पर धमाके करने की बात कबूल की थी। हालांकि, एसटीएफ कोर्ट में ये आरोप साबित नहीं कर पाई।सातों नौजवान बेकुसूर थे। मुसलमान होना ही उनका सबसे बड़ा गुनाह था। पुलिस के एक शक की वजह से उनकेपरिवार पर देशद्रोही होने की तोहमत लगी। बेकुसूर नौजवानों के सात-आठ साल बर्बाद हो गए। अकारण नौजवानों बर्बाद हुए सात-आठ सालों की भरपाई कौन करेगा? खुद को मुसलमानों और इंसानियत का हमदर्द कहने वाले नेता अगर सरकार से सातों लोगों को सरकारी नौकरी दिलवाने की वकालत करते तो मैं इस बातको मान लेता कि ये नौकरी उनके बर्बाद हुए सात-आठ साल की भरपाई है। कहते हैं काजल से काला कलंक होता है और कलंक जिसके दामन पर लग जाये तो सात पुश्तों तक नही छूटता है।अब मैं असल मुद्दे पर आता हूँ। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों पर कोर्ट का पहला फैसला आ गया है।  कोर्ट ने हत्या के मामले में दस आरोपियों को बेगुनाह माना है। इस फैसले के बाद बीजेपी ने पूरे इलाके में जश्न मनाया। यह भी कहा है कि बेगुनाह लोगों को राज्य सरकार ने गलत तरीके से फंसाने की कोशिश की थी। दंगों के दौरान 8 सितंबर 2013 को लोंक गांव में 10 साल के एक बच्चे और 30 साल की महिला की हत्या हुई थी। जांच के लिए बनी SIT ने इस केस में 10 लोगों को दोषी पाया था। फिर फुगाणा पुलिस स्टेशन में सभी के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज किया गया था।मुज़फ़्फ़रनगर में उपचुनाव 13 फरवरी को होने वाला है। उससे पहले आए इस फैसले ने स्थायीन बीजेपीयूनिट को ज़बरदस्त मुद्दा दे दिया है। दंगों के आरोपी और बीजेपी एमएलए सुरेश राणा ने कहा, इस फैसलेने जनता के सामने सच्चाई रख दी है। सपा सरकार के कहने पर स्थानीय प्रशासन ने सैकड़ों हिंदुओं को गलत तरीके से फंसाने की कोशिश की। इस मामले में भी सत्ता का गलत इस्तेमाल किया गया। 11 आरोपियों को अपराध के लिए दोषी बताया गया लेकिन वारदात के समय आरोपी ज़िंदा तक नहीं थे। समाजवादी पार्टी को यह फैसला लंबा सबक सिखाने के लिए काफी है, ख़ासकर 2017 विधानसभा चुनाव के दौरान।सामाजिक संगठन अस्तित्व की निदेशक रिहाना अदीब दंगा पीड़ितों के पुनर्वास पर काम कर रही हैं। उन्होंने कहा है कि एक महिला की हत्या हुई थी, एक बच्चा मारा गया था, लूटपाट और हिंसा की गई थी। यह एकतथ्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता। अगर इन लोगों ने हत्या नहीं की तो किसी ने तो की है। मैं कोर्ट के फैसले पर कमेंट नहीं कर सकती। अदालत में हमारी आस्था है लेकिन यह दुखद है।मुसलमानों के साथ ही ऐसा होता है कि उनके हक़ में अदालत इंसाफ नही करती सिर्फ फैसला सुनाती है। चाहें वो गोधरा कांड हो, बाबरी मस्जिद का मामला हो या फिर भागलपुर की दुःखद घटना हो? क्या करें अदालतके फैसले का विरोध भी नही कर सकते हैं। (ये लेखक के निजी विचार हैं, DELHIUP
Live की सहमति आवश्यक नहीं)

इस्लाम से दूर होता मुसलमान...

इस्लाम को अगर सबसे ज़्यादा किसी से नुक़सान हुआ है तो मेरे ख़याल में वो मुसलमानों से ही हुआ है, दीन परचलने का दावा करने वाले ‘कुछ (कुछ से ज़्यादा ही) मुसलमान’, इस्लाम की आड़ में अपने मक़ासिद को हल करने में लगे रहते हैं.  अपने राजनीतिक और दुनियावी मसलों की कामयाबी के लिए ये लोग इस्लाम को भी अपने हिसाब से इस्तेमाल करने की जुगत में लगे रहते हैं लेकिन ये बात सिर्फ़ राजनीतिक नहीं है ये बात समाज के अपने हितों को लेकर भी  है. एक ऐसा समाज है जो औरतों के बुर्क़ा पहेनने या ना पहेनने के बारे में रोज़ कुछ न कुछ कहता रहता है लेकिन औरतों के दूसरे अधिकार जैसे प्रॉपर्टी में हिस्सा वगैराह पे ये बात भी नहीं करना चाहते. इस्लाम के नाम पे बुर्क़े पहेनने की बात का समर्थन करने वाले कुछ मुसलमान ऐसे भी हैं जो अपनी अपनी शादियों में भर पेट दहेज़ लेकर बैठे हैं और तब ये भूल जाते हैं कि इस्लाम क्या है. इस्लाम में शादी के वक़्त दी जाने वाली मेहर के बारे में भी इनके ख़याल ऐसे हैं कि अगर आपका अपना मक़सद ना हो तो भर पेट हँसेंगे, कुछ तो यूं हैं जो कहते हैं कि वो अपनी बीवी से मेहर माफ़ करवा लिए हैं.खैर,  मैं कोई ऐसी बात नहीं कह रहा जो एक आध लोगों की हो, ये बात आम है. शादियों में बेतहाशा पैसा बहाने वाले ये मुसलमान कौन हैं? अल्लाह सादगी को पसंद करता है लेकिन इनको कुछ भी अल्लाह के लिए नहीं करना, इन्हें सिर्फ़ एक दिखावा करना है और उस दिखावे को किसी न किसी एंगल से इस्लाम से जोड़देना है.Facebook पर हमारे पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करियेअगर बात अलग अलग फ़िर्क़ों की करें तो आलम ये है कि मस्जिदों के बाहर लिखवा दिया गया है कि “फ़लां” फ़िरक़े की मस्जिद है और “फ़लां” का आना सख्त मना है. इतना ही नहीं हर फ़िरके का अलग क़ब्रिस्तान है, अब अगर आपका मुर्दा उनके फ़िरके से मेल नहीं खाता तो उसको वहाँ जगह नहीं मिलनी, इसी तरह के एक वाकये में राजस्थान में एक क़ब्र से निकाल कर मुर्दे को उसके घर पहुंचा दिया गया क्यूंकि वो उनके फ़िरके का नहींथा. ये अपने आप में शर्मनाक है और दिलचस्प ये है कि ये कुछ मुसलमान जो तमाम मुसलमानों के ठेकदार बने बैठे हैं इन सब चीज़ों से ख़ुश होते हैं. पिछले दिनोंएक इस्लामिक मजलिस  में जाना हुआ तो वहाँ मौलवी साहब ने पहला काम दूसरे फ़िर्क़ों को बुरा भला कह के पूरा किया और शायद यही उनका सबसे ज़रूरी काम था.मुझे नहीं पता कि क़ुरान के कौन से हिस्से में और हदीस के कौन से पन्ने में ये लिखा है कि आप इस तरह से अलगाव का माहौल पैदा करें, इस्लाम तो इत्तेहाद का नाम है. इस्लाम आसानी का नाम है और आप उसे मुश्किल पे मुश्किल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा तो बिलकुल नहीं है कि ये जो नाटक ‘कुछ मुसलमान’ कर रहे हैं इस्लाम के नाम पे हमें नज़र नहीं आता लेकिन हम भी ख़ास कुछ करते नहीं हैं क्यूंकि उन्होंने अपनी एक सत्ता क़ायम कर ली है.  इसमें भी कहीं न कहीं एक पूंजीवाद और साम्राज्यवाद शामिल है जिस वजह से ये सब एक मकड़ी के जाल की तरह हो गया है.एक और बुराई जो मुझे नज़र आती है वो है पढ़ाई लिखाई के माहौल की कमी, उसका भी जो सबसे एहम कारण है वो है कि आजकल के ‘कुछ मौलानाओं’ ने विज्ञान को इस्लाम से दूर करने की कोशिश की है, दुनियावी और इस्लामी तालीम में अलगाव बताने की कोशिश करने वाले ये लोग शायद ये भूल गए हैं कि दुनिया की हर चीज़ अल्लाह की ही मर्ज़ी से है और अगर विज्ञान है तो उसमें अल्लाह की मर्ज़ी है. फिर आप कैसे अल्लाह की ही चीज़ को पढने से मना कर सकते हैं. मैं ये नहीं कहता कि आप बिन मर्ज़ी के विज्ञान पढ़िए लेकिन समझने और सोचने का तरीक़ा तो वैज्ञानिक ही होना चाहिए और अगर वाक़ई इन ‘कुछ मुसलमानों’ को विज्ञान से शिकायत है तो मोबाइल-इन्टरनेट, गाड़ियां  क्यूँ चलाते हैं. ये अपना फ़ायदा ख़ूब जानते हैं और ये भी जानते हैं कि आपजान गए तो इनकी पूंजीवादी दुकान बंद हो जायेगी.बहरहाल मैं यहाँ सिर्फ़ ये बात कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि इस्लाम को समझने के लिए आपको क़ुरान और हदीस पढने की ज़ुरूरत है और उस पर अमल करने की ज़रुरतहै और इस्लाम इत्तेहाद का नाम है, अलगाव का नहीं. हमारी ज़िम्मेदारी है कि जो लोग हम में पीछे हैं उन्हें आगे लायें, मजदूरों को सहारा दें और औरतों को ताक़त दें. इस्लाम को जिन लोगों से नुक़सान हुआ हैवो बाहरी नहीं हैं वो इस्लाम के ही अन्दर हैं लेकिन इस्लाम से भटक गए हैं. मैं उम्मीद करता हूँ अमन के रास्ते पे चलते हुए, लोगों से इस बारे में चर्चा की जायेगी.(ये लेखक के अपने विचार हैं, DELHIUPLive की सहमति आवश्यक नहीं)बशुक्रिया-सिआसत

क्या मुसलमान पीठ में छुरा घोंपने वाली पार्टी के प्यार में अंधे हो गए हैं? - AIMIM

अफ़ज़ल को फांसी दी गई कांग्रेस पार्टी की सरकार ने, लेकिन मुसलमानों के कठघरे में खड़ी है बीजेपी. अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाने में 100 प्रतिशत योगदान और बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने में 50 प्रतिशत योगदान कांग्रेस का भी रहा, लेकिन मुसलमानों के कठघरे में खड़ी है अकेली बीजेपी. 1947 के बाद से देश में सैंकड़ों बड़े और हज़ारोंछोटे दंगे हुए… लेकिन देश उन तमाम दंगों को भूल गया. याद रहा तो सिर्फ़ एक दंगा- गुजरात का दंगा. यानी जो दंगे कांग्रेस ने करवाए या उसके शासन मे हुए, वे सभी देवी की उपासना और अल्लाह की इबादत के कार्यक्रम थे और जो दंगे बीजेपी ने करवाए या उसके शासन में हुए, सिर्फ़ वही कत्लेआम और नरसंहार माने गए.ऐसे चमत्कार यह साबित करते हैं कि बीजेपी की सांप्रदायकिता बचकानी है और कांग्रेस की सांप्रदायिकता शातिराना है. कांग्रेस सारे गुनाह करके भी अपना दामन साफ़ रखती है. कांग्रेस ने उजला कुरता, उजली टोपी चुनी. दाग लगेगा भी तो धो लेंगे, दामन फिर उजला हो जाएगा. बीजेपी ने भगवा कपड़ा, भगवा झंडा चुन लिया. कितना भी साफ़ करो, लाल से मिलता-जुलता ही दिखेगा. कांग्रेस ख़ून पीकर कुल्ला कर लेती है और आरएसएस-बीजेपी के वीर बांकुड़े अक्सर पानी में लाल रंग मिलाकर लोगों को डराने में अपनी बहादुरी समझते हैं.कांग्रेस की सियासत कुछ ऐसी रही कि जब उसे मुसलमानों को मारना हुआ, उसने मार दिया, लेकिन सामने आकर कहा कि यह निंदनीय कृत्य है, हम इसकी निंदा करते हैं. कभी बाज़ी उल्टी पड़ गई और लोग खेलसमझ गए, तो उसने बड़ी मासूमियत से माफ़ी मांग ली. दूसरी तरफ़ बीजेपी की सियासत ऐसी रही कि जब उसे मुसलमानों को नहीं भी मारना हुआ, तब भी उसने चीख़-चीख़कर कहा- “पाकिस्तान परस्तो, हम तुम्हें सबक सिखा देंगे. भारत में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा. भारत की खाओ और पाकिस्तान की गाओ, हम नहीं सहेंगे.”मेरी राय में मुसलमानों को लेकर कांग्रेस और बीजेपी की सियासत में यही फ़र्क़ है. देश में आज जोइतनी सांप्रदायिकता है, उसके लिए अकेले आरएसएस और बीजेपी को ज़िम्मेदार मानने के लिए कम से कम मैं तो तैयार नहीं हूं. मेरी नज़र में आरएसएस और बीजेपी के उद्भव, उत्थान और उत्कर्ष की कहानी में कांग्रेस की दोगली सियासत का सबसे बड़ा रोल है. कांग्रेस अगर सही मायने में धर्मनिरपेक्षता की नीति पर चली होती, तो आज आरएसएस और बीजेपी का कहीं नामोनिशान नहीं होता.जब हमने लोकतंत्र अपनाया, सभी नागरिकों के हक़ और आज़ादी की बात की, धर्मनिरपेक्षता के कॉन्सेप्ट कोस्वीकार किया, तब हमें एक और चीज़ तय करनी चाहिए थी. वह यह कि हर हालत में ग़लत को ग़लत कहेंगे और सही को सही. वोट के लिए ग़लत को सही और सही को ग़लत कहना लोकतंत्र और संविधान की हत्या के बराबर है. और यह काम कांग्रेस पार्टी ने देश की किसी भी दूसरी पार्टी से बढ़-चढ़कर किया. उसने मुसलमानों के ग़लत को भी सही कहने से कभी परहेज नहीं किया. शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला पलटना इसका क्लाइमैक्स था. इससे नुकसान हिन्दुओ को नहीं,हमारी करोड़ों मुस्लिम माताओं और बहनों को ही हुआ.देश की सभी पार्टियां सत्ता के लिए किसी भी हद तक नीचे गिरने को तैयार हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने पिछले 68 साल में साबित किया है कि उससे अधिक नीचे कोई नहीं गिर सकती. दुर्भाग्य से कांग्रेस केपास आज़ादी की लड़ाई की चकाचौंध भरी कहानियां और केश कटाकर कुर्बानी देने के ऐसे-ऐसे किस्से हैं, जिसकी बुनियाद पर उसने ऐसा माहौल बना रखा है, जिससेउसके सारे गुनाह माफ़ हो जाते हैं. जिन लोगों ने आज़ादी की लड़ाई में असली कुर्बानियां दीं, आज़ादीके बाद कांग्रेस ने उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया.लोग इस बात की भी अनदेखी कर देते हैं कि कांग्रेस को 1947 में किसी भी कीमत पर देश का विभाजन रोकना था, जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा भी था कि विभाजन मेरी लाश पर होगा. लेकिन विभाजन तो गांधी जी की लाशपर नहीं हुआ… हां, विभाजन की वजह से उनकी लाश ज़रूरगिर गई. जवाहर लाल नेहरू को सत्ता सौपने के लिए देशका विभाजन होने दिया गया. और यह कहने की ज़रूरत नहीं कि उसी एक विभाजन की वजह से पिछले 68 साल से भारत में न सिर्फ़ लगातार तनाव का वातावरण बना हुआहै, बल्कि भारत और पाकिस्तान- एक ही ख़ून- एक दूसरे का ख़ून पीने पर आमादा रहते हैं.हिन्दू और मुसलमान भारत माता की दो आंखें हैं और कांग्रेस पार्टी ने पिछले 68 साल में उन दोनों आंखों को फोड़कर देश को अंधा बनाने का काम किया है.और इस तरह इस कानी पार्टी ने अंधों की रानी बने रहने का नुस्खा ढूँढा ।(लेखक आल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन के दिल्ली कमेटी के नेता हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

अजब-गजब: सेक्स फेस्टीवल, बस सात बार बनाएं 'संबंध', पूरी होगी मुराद

जकार्ता।दुनिया में यूं तो एक से बढ़ कर एक अजीब-ओ-गरीब परंपराएं-त्योहार हैं, जो हमारे जीवन को खुशियों से भर देते हैं। इंडोनेशिया के बाली द्वीप में भी एक ऐसा ही त्योहार मनाया जाता है, जिसकी रस्मों को सुन कर आप चौंक जाएंगे।यहां पर पॉन नामक त्योहार मनाया जाता है, जो छुट्टियों के दौरान होता है। इस पर्व के दौरान आपको एकदम से अनजान साथी के साथ सेक्स करना होता है। स्थानीय रिवाजों के मुताबिक इस पवित्र भूमि पर अनजान साथी के साथ सेक्स करने से एक-दूसरे की मनचाही मुरादें पूरी होती हैं। साथ ही निजी जीवन में भी उनके परिवार में खुशियां बनी रहती हैं। इंडोनेशिया में 'पॉन' नाम से छुट्टियों का यह पर्व मनाया जाता है। पर्व के बारे में हैरान कर देने वाली बात ये है कि इसमें आपको अनजान साथी के साथ शारीरिक संबंध बनाने होते हैं। यह पर्व एकसाल में सात बार मनाया जाता है। मतलब यह कि आपको पूरे साल में सात बार यह करना होता है। हर बार आपका साथी पुराना वाला ही होना चाहिए, तभी इस सेक्स फेस्टीवल के फायदे होंगे। इसके साथ ही इस पर्व के दौरान आपको कई नियमों का पालन करना होता है। क्योंकि, यह पर्व स्थानीय परंपरा से जुड़ा है, इसलिए जाहिर है कि रस्म-रिवाज भी स्थानीय होंगे। स्थानीय लोग इस पर्व के लिए स्थानीय पर्वत पर पवित्र स्थल बनाते हैं। साथ ही सेक्स फेस्टीवल में शामिल होने आये लोग उक्त पर्वत पर पहुंचते हैं। वहां पर जाकर ही एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं और फिर सहमति से शारीरिक संबंध बनाते हैं। नियमों के तहत आपको पर्व के हर पवित्र योग के मौके पर नये-नये साथी खोजने होंगे और उनके साथ संबंध बनाने होंगे।

अजब बीमारी, इस महिला को 5 साल तक लगातार होते रहे पीरियड्स

पर्थ।  उफ! पीरियड्स के तकलीफदेह दिन! महीने के उन पांच या छह दिनों का जिक्र महिलाएं कुछ इसी अंदाज में करती हैं। सोचिए अगर किसी महिला ने इसे महीने के पांच दिन नहीं लगातार पांच साल तक इसे झेला हो।पीरियड्स के दौरान सैनिट्री नैपकिंस, पेनकिलर पर खर्च होने वाले पैसों के बारे में भूल जाएं। आइसक्रीम, मिठाई या फिर अपनी पसंद की चीजों को नहींखा पाने की मजबूरी भी भूल जाएं, लेकिन इस दौरान होने वाले दर्द की तकलीफ कैसे भूलें? पीरियड्स में दर्द और मानसिक तकलीफ सभी महिलाओं के लिए चुनौती होती है। 27 साल की ऑस्ट्रेलिया के पर्थ की रहने वालीं क्लो क्रिस्टस इस तकलीफ का हर रोज सामना कर रहीं हैं।क्रिस्टस जब 14 साल की थीं, तब उन्हें पहली बार पीरियड्स हुआ था। अगले पांच साल तक लगातार क्रिस्टस को पीरियड्स होते ही रहे। उस तकलीफ को याद करते हुए क्रिस्टस कहती हैं, 'मुझे पता था कि यहनॉर्मल नहीं है, लेकिन मैं इसे लेकर शर्मिंदगी से भरी हुई थी। उस दौरान मैं खुद को बहुत अकेला महसूस करती थी।'क्रिस्टस को इस वजह से हाई स्कूल के दिनों से ही एनीमिया की गंभीर परेशानी हो गई। 19 साल की उम्र में उन्होंने साप्ताहिक स्तर पर आइरन की गोलियां लेनी शुरू कर दी। सात महीने तक आइरन की गोली लेने के बाद भी उनका आइरन लेवल काफी कम था। इसके बाद उन्होंने कई टेस्ट कराए और फिर उन्हें अपनी बीमारी के बारे में पता चला। क्रिस्टस को ब्लीडिंग की आजीवन चलने वाली बीमारी है, जिस विलेब्रैंड डिजीज कहते हैं। ब्लीडिंग डिजीज के तौर हैमोफीलिया का नाम लोगों ने सुना है, लेकिन विलेब्रैंड डिजीज की जानकारी कम लोगों को है।बीमारी की वजह से क्रिस्टस के शरीर से हर रोज आधे लीटर रक्त का स्त्राव होता है। वहीं पीरियड्स के दौरान महिलाओं का औसतन 20 से 60 मिलीलीटर रक्तस्त्राव होता है। इस वजह से उन्हें थकान और कमजोरी की भी शिकायत होती है। मेडिकल प्रफेशन में इस बीमारी को लेकर जानकारी का अभाव है। क्रिस्टस बताती हैं, 'मैं कई ऐसे मेडिकल प्रफेशनल्स से मिली हूं, जिन्हें ब्लीडिंग डिजीज और इससे होने वाली तकलीफ का अंदाजा नहीं है। बतौर आर्ट डायरेक्टर मुझे लगातार यात्रा करनी होती है। आज तक मैंने जितने भी देशों की यात्रा की है, मुझे एक न एक बार मेडिकल इमर्जेंसी रूम जरूर जाना पड़ा है।'डॉक्टरों ने क्रिस्टस को इससे बचने के लिए एक दवाईदी है जिससे 12 घंटे तक ब्लीडिंग बंद रहती है। दवाई का असर खत्म होते ही ब्लीडिंग फिर शुरू हो जाती है। इस समस्या के समाधान के लिए कुछ डॉक्टरोंने उन्हें गर्भाशय निकालने की सलाह दी, जिसे मानने से क्रिस्टस ने इनकार कर दिया। उनका कहना है, 'मैं नहीं जानती हूं कि मुझे बच्चे चाहिए या नहीं, लेकिनमैं कुछ भी ऐसा नहीं कर सकती जो औरत होने की विशेषता से जुड़ा हो।' फिलहाल क्रिस्टस इस बीमारी के बारे में जागरुकता के लिए कई कैंपेन चला रही हैं।

सुअर के ख़ून में डूबी हुई गोलियों से मुसलमानों की हत्या के ट्रम्प के बयान की निंदा

पिछले साल अमरीका के उत्तरी केरोलिना में मारे गए मुसलमान छात्र की बहन ने राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन उम्मीदवार व विवादित नेता डोनाल्ड ट्रम्प के एक ताज़ा मुस्लिम विरोधी बयान पर कहा हैकि ट्रम्प को उनसे मिलना चाहिए।शादी बरकात की बहन 28 वर्षीय सूज़न बरकात ने मुसलमानों को सुअर के ख़ून में डूबी हुई गोलियों से मारने के ट्रम्प के विवादास्पद बयान की कड़ी आलोचना की है।उल्लेखनीय है कि शादी बरकात की उनके पति अबू सलह और उनकी बहन राज़ान अबू सलह के साथ पिछले साल हत्या कर दी गई थी।इस दंपति की हत्या से केवल 2 महीने पहले ही शादी हुई थी।उत्तरी केरोलिना के चैपल हिल की पुलिस ने इस दंपतिके पड़ोसी को क्रैग स्टीफ़न हेक्स को उनकी हत्या के संदेह में गिरफ़्तार किया था, जो अभी भी जेल में क़ैद है।पिछले हफ़्ते ट्रम्प ने आतंकवाद से मुक़ाबले पर बल देते हुए कहा था कि जनरल जान प्रशिंग ने 50 मुसलमान संघर्षकर्ताओं को पकड़ लिया था और अपने सैनिकों को आदेश दिया था कि इनमें से 49 को सुअर के ख़ून में डूबी हुई गोलियों से भून डालो। msm

अल-अज़हर विश्वविद्यालय में शिया और सुन्नी एकता केन्द्र की स्थापना

काहिरा।मिस्र के अल-अज़हर विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर शेख़ अहमद करीमा ने कहा है कि जारी महीने के अंत तक विश्वविद्यालय में शिया और सुन्नी मुसलमानों को निकट लाने के केन्द्र का औपचारिक रूप से उद्घाटन हो जाएगा।अल-अज़हर में धर्मशास्त्र के प्रोफ़ेसर करीमा ने बताया कि यह केन्द्र समस्त इस्लामी मतों के अनुयाईयों को निकट लाने विशेष रूप से शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच मतभेदों को दूर करने के प्रयास करेगा।उन्होंने कहा कि इस केन्द्र द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में न केवल मुसलमानों को आपस में निकट लाने का प्रयास किया जाएगा, बल्कि मुसलमानों और ईसाईयों के बीच एकता एवं आपसी समझ को बढ़ावा दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि विश्व और इलाक़े में आले सऊद द्वारा प्रायोजित वहाबी एवं तकफ़ीरी विचारधारा के फैलने से मुसलमानों के बीच आपस में और अन्य धर्म के अनुयाईयों के साथ सौहार्द को बड़ाझटका लगा है और हिंसात्मक विचारों को बल मिला है। इस प्रकार के कट्टरपंथी विचारों का मुक़ाबला करनेके लिए ईरान और मिस्र जैसे देशों ने पहल की है।

चीन बना रहा हैं काबा की नक़ल, सऊदी अरब ने दी 9/11 जैसे हमले की धमकी

चीन ने दुनिया भर के मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करते हुए मध्य चीन के ननचांग शहर में मुस्लिमों के पवित्र शहर मक्का में स्थित काबा शरीफ की नक़ल बनाने का फैसला किया हैं. चीन के इस फैसले पर सऊदी अरब ने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर उन्होंने अपने इस फैसले को नहीं बदला तो अमेरिका की तरह चीन भी 9/11 जैसे हमले के लिए तैयार हो जाये। न्यूज चैनल’अल जजीरा’ के मुताबिक सलमान बिन अब्दुल अजीज ने कहा है कि अगर चीन ने मक्का की रेपलिका का फैसला वापस नहीं लिया तो हालात 9-11 जैसे होंगे।  चीन में पर्यटन मंत्री हू यान चाओ ने खुद इसके निर्माण की जिम्मेदारी ली है. चीन ने कहा है कि वह 2016 तक मक्का के हूबहू इमारत का निमार्ण पूरा करलेगा. उन्होंने बताया कि इसे बनाने में करीब 20 करोड़ यूआन (करीब 2 अरब रुपए) का खर्च आएगा। इसका निर्माण मध्य चीन के ननचांग शहर के पास होगा. यह शहर फेमस इमारतों की नकल के लिए जाना जाता है. यहां पहले से ही पेरिस के एफिल टॉवर, लंदन के टॉवर ब्रिज और अमेरिका की स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की नकल मौजूद है।

नमाज़ पढ़ने वाले जोड़े पर अमेरिकी पुलिस ने तानी बंदूक

वाशिंगटन ।अमरीका के मेडफ़ोर्ड शहर में पुलिसकर्मियों ने रेलवे स्टेशन पर नमाज़ पढ़ने वाले एक जोड़े पर हथियार तान लिया। रेडियो इरान कीवेबसाइट पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मासाचोसेट राज्य के मेडफ़ोर्ड के पुलिसकर्मी एक राहगीर द्वारा यह रिपोर्ट दिए जाने के बाद कि एक मुस्लिम जोड़ा रेलवे स्टेशन पर नमाज़ पढ़ रहा है, हथियार लेकर वहां पहुंच गए।वूस्टर शहर के एक मुस्लिम नेता ताहिर अली ने इस संबंध में बताया कि पुलिस हर असाधारण बात को ख़तरासमझने लगती है। उन्होंने कहा कि कुछ मुसलमान अज़ान होते ही नमाज़ पढ़ने को प्राथमिकता देते हैं और वे जहां भी होते हैं, नमाज़ शुरू कर देते हैं।ताहिर अली ने कहा कि अमरीकी मुसलमान चाहते हैं कि लोग यह जान लें कि इस्लाम, हिंसा का विरोधी है और ओरलैंडो शहर में हुई फ़ायरिंग की घटना जैसी पाश्विक कार्यवाहियों का इस्लाम में कोई स्थान नहीं है।

'कुरान' नहीं जानने वालों को लड़ाका बनाता है IS

लंदन।  अगर आप 25 से 30 साल की उम्र के युवा हैं, पढ़े-लिखे हैं, शादीशुदा नहीं हैं और कुरान के एक्सपर्ट नहीं हैं तो दुनिया का सबसे खूंखार आतंकवादी संगठन आईएसआईएस आपको अपना लड़ाका बनाने के लिए बरगला सकता है। दरअसल, आईएसआईएस के हजारों लड़ाकों की प्रोफाइल अमेरिका के हाथ लगी है और इसमें ये बातें सामने आईं हैं।द इंडिपेंडेंट की रिपोर्ट के मुताबिक, आईएसआईएस में लड़ाकों की भर्ती से जुड़े हजारों डॉक्युमेंट्स लीक हुए हैं जो इस संगठन की अंदरूनी बातों की जानकारी देते हैं। अमेरिकी सेना के आतंकवाद निरोधी केंद्र (सीटीसी) का कहना है कि ये सभी डॉक्युमेंट्स बिल्कुल सही हैं और इससे 2013 और 2014 के दौरान आईएसआईएस जॉइन करने वाले 4,188 आतंकवादियों के बारे में जानकारी मिलती है।एक्सपर्ट्स ने कहा, 'इस्लामिक स्टेट और इसमें विदेशी लड़ाकों की भर्ती संबंधी जानकारियों को समझने के लिए ये डेटा काफी अहम हैं।' इस डेटा से पताचलता है कि इस आतंकवादी संगठन में हर लड़ाके की भर्ती के लिए एक विशिष्ट फॉर्म होता है जिसमें उनके असली नाम और बदले हुए नामों, उम्र, एजुकेशन के स्तर, राष्ट्रीयता आदि का जिक्र होता है।डेटा से पता चलता है कि भर्ती के दौरान हर शख्स से पूछा जाता है कि वह लड़ाका बनना चाहता है, आत्मघातीबॉमर या फिर आत्मघाती हमलावर। इसमें पाया गया कि ज्यादातर लड़ाकों ने आत्मघाती बनने का फैसला लिया। भर्ती के दौरान ज्यादातर लड़ाकों की उम्र 26 से 27 साल के बीच पाई गई। इसमें यह भी पाया गया कि आईएसआईएस ने अपने मकसदों को पूरा करने के लिए कुरान को तोड़-मरोड़कर पेश किया और ऐसे जबर्दस्त हिंसात्मक कार्य किए जिनकी इजाजत कुरान नहीं देता।

फातमा सामोरा “फीफा” की पहली महिला महासचिव

मक्सिको। फातिमा सामोरा को फीफा की महिला महासचिव चुने जाने पर उसने इतिहास रच दिया है, फातिमा सामोरा फीफा की पहली महिला सचिव हैं. फीफा प्रेसीडेंट जियानी इन्फेन्टिनो ने मैक्सिको सिटीमें सालाना कांग्रेस में उनकी नियुक्ति की घोषणा की है.फातिमा समोरा फातमा अभी तक यूएन में सेनेगल की राजनयिक थीं. फीफा ने फातिमा सामोरा को इस पद के लिए नियुक्त करके यह ऐतिहासिक फैसला फीफा की कांग्रेस में किया है. फातिमा सामोरा 54 साल की हैं और वह फुटबॉल जगत काफी मुतास्सिर हैं और फुटबाल से संबंध रखती हैं. फातिमा ने 21 सालों तक यूनाइटेड नेशंस में काम किया है. फिलहाल फातमा नाइजीरिया में संयुक्त विकास कार्यक्रम से भी जुड़ी हैं.फीफा के अध्यक्ष गीयानी इन्फेन्टिनो कहते हैं कि ‘अपने संगठन की पुनर्निर्माण और पुनर्वास प्रयासों में फीफा के लिए महत्वपूर्ण है कि नए दृष्टिकोण शामिल किए जाएं।‘उन्होंने टीम बनाने और उसके नेतृत्व और संगठनों के प्रदर्शन में सुधार लाने में अपनी योग्यता साबित की है। फीफा के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि वह समझती हैं कि पारदर्शिता और जवाबदेही किसी भी जिम्मेदार संगठन में केंद्रीय हैसियत रखते हैं। ‘फातिमा समवर्ती पद की पुष्टि से पहले उनकी क्षमता का एक परीक्षा भी होगी। वह अब नाइजीरिया में संयुक्त राष्ट्र के साथ जुड़े हैं और उन्हें चार भाषाओं में महारत हासिल है।फातिमा समवर्ती ने साल 1995 में रोम से विश्व खाद्य कार्यक्रम के वरिष्ठ रसद अधिकारी के रूप में संयुक्त राष्ट्र में अपने कैरियर शुरू किया था और नाइजीरिया सहित छह अफ्रीकी देशों में बतौर निदेशक कर्तव्यों का आयोजन दे चुकी हैं।उनका कहना है, “यह मेरा लिए एक आश्चर्यजनक दिन है, और मैं इस पद के लिए गर्व महसूस करती हूं। ‘

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