मुजफ्फरनगर दंगों के तिहरे हत्याकांड के दस आरोपियों को सबूतों के अभाव में और गवाहों के अदालत में मुकर जाने के चलते बरी कर दिया है। सवाल किससे करें ? उन तीनों मृतकों से जिन्हें मार दियागया ? या फिर मी लोड से ? चलिये मी लोड से ही सवाल कर लेते हैं कि आखिर आस मोहम्मद उसकी पत्नी और उनके बच्चे का कत्ल किसने किया है मी लोड ? याद रखिये अदालत ने सिर्फ फैसला सुनाया है न्याय नहीं दिया है। 10 आरोपियों को कोर्ट ने बेगुनाह मानते हुए बरी कर दिया। कोर्ट का फैसला आते ही तरन्नुम कानपुरी की चंद पंक्तियाँ मेरे जहन में आ गईं। वाकई तरन्नुम कानपुरी ने सच लिखा है...इंसाफ की उम्मीद अदालत से मत रखना।इस दौर में कातिल की सजा कोई नही है।।क्या पेश करूँ इस दौर मुंसिफ की नजर में।कातिल वही है जिसकी खता कोई नही है।।मेरे लेखों की हमेशा आलोचना होती है और मुझे यकीन है कि आज फिर इस लेख की लोग आलोचना करेंगे। खैर आलोचना से मुझे कोई फर्क नही पड़ता। मुझे जो लिखनाहै वो लिखूंगा और लिखता रहूँगा। इस दौर में बेकुसूर मुसलमान को आतंकी बनने या बनाने में देर नही लगती है। आतंकी संगठन से सम्बन्ध रखने के शक में अब्दुल रहमान को पुलिस ने गिरफ्तार किया और 8 साल जेल में बिताने पड़े। विशेष जज शाह रिजवी ने सबूतों की कमी के कारण गुरुवार को रहमान को बरी कर दिया। कोर्ट ने पिछले साल अक्टूबर में इसी मामले के 6 अन्य आरोपियों को भी सबूत के अभाव में बरी कर दिया था।यूपी पुलिस की एसटीएफ (स्पेशल टास्क फोर्स) ने हूजी से संबंध रखने और आतंकी हमले करने की योजना बनाने के आरोपों पर 2007-2008 के बीच 7 लोगों को गिरफ्तार किया था। एसटीएफ ने दावा किया था कि आरोपियों ने यूपी में रेलवे स्टेशन, धार्मिक स्थलों और बस स्टैंडों पर धमाके करने की बात कबूल की थी। हालांकि, एसटीएफ कोर्ट में ये आरोप साबित नहीं कर पाई।सातों नौजवान बेकुसूर थे। मुसलमान होना ही उनका सबसे बड़ा गुनाह था। पुलिस के एक शक की वजह से उनकेपरिवार पर देशद्रोही होने की तोहमत लगी। बेकुसूर नौजवानों के सात-आठ साल बर्बाद हो गए। अकारण नौजवानों बर्बाद हुए सात-आठ सालों की भरपाई कौन करेगा? खुद को मुसलमानों और इंसानियत का हमदर्द कहने वाले नेता अगर सरकार से सातों लोगों को सरकारी नौकरी दिलवाने की वकालत करते तो मैं इस बातको मान लेता कि ये नौकरी उनके बर्बाद हुए सात-आठ साल की भरपाई है। कहते हैं काजल से काला कलंक होता है और कलंक जिसके दामन पर लग जाये तो सात पुश्तों तक नही छूटता है।अब मैं असल मुद्दे पर आता हूँ। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों पर कोर्ट का पहला फैसला आ गया है। कोर्ट ने हत्या के मामले में दस आरोपियों को बेगुनाह माना है। इस फैसले के बाद बीजेपी ने पूरे इलाके में जश्न मनाया। यह भी कहा है कि बेगुनाह लोगों को राज्य सरकार ने गलत तरीके से फंसाने की कोशिश की थी। दंगों के दौरान 8 सितंबर 2013 को लोंक गांव में 10 साल के एक बच्चे और 30 साल की महिला की हत्या हुई थी। जांच के लिए बनी SIT ने इस केस में 10 लोगों को दोषी पाया था। फिर फुगाणा पुलिस स्टेशन में सभी के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज किया गया था।मुज़फ़्फ़रनगर में उपचुनाव 13 फरवरी को होने वाला है। उससे पहले आए इस फैसले ने स्थायीन बीजेपीयूनिट को ज़बरदस्त मुद्दा दे दिया है। दंगों के आरोपी और बीजेपी एमएलए सुरेश राणा ने कहा, इस फैसलेने जनता के सामने सच्चाई रख दी है। सपा सरकार के कहने पर स्थानीय प्रशासन ने सैकड़ों हिंदुओं को गलत तरीके से फंसाने की कोशिश की। इस मामले में भी सत्ता का गलत इस्तेमाल किया गया। 11 आरोपियों को अपराध के लिए दोषी बताया गया लेकिन वारदात के समय आरोपी ज़िंदा तक नहीं थे। समाजवादी पार्टी को यह फैसला लंबा सबक सिखाने के लिए काफी है, ख़ासकर 2017 विधानसभा चुनाव के दौरान।सामाजिक संगठन अस्तित्व की निदेशक रिहाना अदीब दंगा पीड़ितों के पुनर्वास पर काम कर रही हैं। उन्होंने कहा है कि एक महिला की हत्या हुई थी, एक बच्चा मारा गया था, लूटपाट और हिंसा की गई थी। यह एकतथ्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता। अगर इन लोगों ने हत्या नहीं की तो किसी ने तो की है। मैं कोर्ट के फैसले पर कमेंट नहीं कर सकती। अदालत में हमारी आस्था है लेकिन यह दुखद है।मुसलमानों के साथ ही ऐसा होता है कि उनके हक़ में अदालत इंसाफ नही करती सिर्फ फैसला सुनाती है। चाहें वो गोधरा कांड हो, बाबरी मस्जिद का मामला हो या फिर भागलपुर की दुःखद घटना हो? क्या करें अदालतके फैसले का विरोध भी नही कर सकते हैं। (ये लेखक के निजी विचार हैं, DELHIUP
Live की सहमति आवश्यक नहीं)
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