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Saturday, 27 August 2016

हिंदू धर्म में होने वाले भेदभाव से तंग आकर दलित चुन रहे इस्लाम की राह

तमिलनाडु के गाँव Pazhangkallimedu एवं Nagapalli में हुए दलितों के साथ दुर्लभ व्यवहार निंदनीय है। मंदिर में पूजा -पाठ करने से रोकना न केवल सामाजिक अपराध है बल्कि भारतीयों के मौलिक अधिकार का हनन भी है। यदि हम बात करें किसी ख़ास वर्ग की तो ये बात यहीं ख़त्म नहीं होती की दलितों को उस मंदिर में पूजा करने से रोका गया, बल्कि ये एक ऐसे आंदोलन की तरफ इशारा करता है जिससे पुरे राज्य में धर्म के नाम पर कई नकारात्मक मुद्दे जन्म ले सकते हैं। पहला मुद्दा है दलित होने के साथ साथ वे हिन्दू हैं ,काम जो भी करते हों पर राम को पूजते हैं , होली से लेकर दीपावली तक उसी भावना से मनाते हैं जैसे हम और आप। दूसरा मुद्दा है मेहनत कर के कमाए गए पैसे से उसी दुकान और मंडी से अनाज,फल और सब्ज़ी लेते हैं जहाँ से हम और आप। तीसरा जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है वह ये की जब इन्हें महामारी या बीमारी घेर लेती है तो हस्पताल भी वही और दवा भी डॉक्टर वही देतेहैं जो बीमारी में कारगर सिद्ध हो जैसे हमें और आप को देते हैं। अब सवाल ये उठता है कि जब त्यौहार -भगवान्, सब्ज़ी-फल-अनाज और बीमारी-डॉक्टर- दवा में कोई भेदभाव नहीं तो केवल पंडितों के अड्डे पर ही भेदभाव क्यों। अगर भेदभाव करना है तो उनके लिए सामाजिक संरचना को बदलना होगा।केवल धर्म परिवर्तन से तो पूजा करने का तरीका बदलेगा, मन में जो राम बसे हैं उन्हें कैसे परिवर्तित करंगे , घर में दिवाली के रौशनी और पटाखों की आदत है उसके स्नेह को कैसे परिवर्तित करेंगे। यही नहीं अगर इस्लाम कबूल लेंगे तो गौ-पूजा के जगह गौ-हत्या करेंगे फिर एक सामाजिक पाप के भागी बनेंगे यही लोग। कभी बापू जी ने सोचा नहीं होगा की उनके दिए हुए हरिजन नाम को आज भी लोग दलित के नाम से ही जाचें परखेंगे। बापू के इसभूमि की संवेदनशीलता इसी में है की कम से कम धर्म को तो मुद्दा न बनने दें हम सब अन्यथा धार्मिक असहिष्णुता के बीज हर ह्रदय में बैठजायेंगे फिर हम न तो समाज का उत्थान कर सकेंगे ना ही राष्ट्र का हित। राष्ट्रभावना से ओत-प्रोत हमारे संविधान ने न जाने कितने विषम घड़ियों में हमें न्याय दिलाने में हमारा साथ दिया है पर बात धर्म के मुद्दे की हो तो सब कमज़ोर पड़ जाते हैं बस एक ही चीज़ जो सबसे बड़ी दावेदार साबित होती है वह है आस्था। हमारे देश में न्याय से ज़्यादा आस्थाका बोल-बाला है। धर्म परिवर्तन जैसे मुद्दे इतने गंभीर नहीं हैं, पर हाल में हुए दलितों के साथ इस व्यवहारात्मक घटना से धर्म परिवर्तन एक धमकी जैसी लगती है। जिसमे न तो किसी की मर्ज़ी है न रूचि , परंतु फिर भी इस्लाम अपनाएंगे क्योंकि उनके अपने धर्म में , अपने मंदिर में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। इस प्रकार से होने वाले धर्म परिवर्तन हमें किसी धर्म के महान होने का संकेत नहीं देते।इस पुरे घटनाक्रम में एक बात साफ़ हुई की भारतमें यहाँ भी आरक्षण की ज़रूरत है, प्रत्येक मंदिर में कितने प्रतिशत दलित अपनी उपस्तिथि दर्ज करा सकते हैं इसका उल्लेख ज़रूरी है। क्योंकि जहाँ आस्था की बात है तो स्पष्ट है की हमारे बुद्धिमान पंडित अपने मंदिर को मैला नहीं करने देंगे, तो शायद ये आरक्षण की योजना ही उन दलितों का कुछ भला कर सके। इस बार संघर्ष हिन्दू-मुस्लिम , मंदिर-मस्जिद, या गौहत्या -गौपूजन से नहीं बल्कि येविवाद मंदिर में ही खड़े एक हिन्दू का दूसरे हिन्दू के साथ पूजा करने से जुड़ा है जो दुखद है। जब हम हिन्दू ही भाई -भाई नहीं तो हिन्दू मुस्लिम भाई भाई की परिकल्पना करना अनुचित है। ऐसी घटनाएं मानसिक स्तर पर असंतुष्ट करती हैं। राज्य के बनाये हुए मंदिर और देश के बनाये हुए संविधान के बीच ताल मेल बिठाना आवश्यक है ताकि किसी भी असहिष्णुता से हम आसानी से उबर सकें और रही बात धर्म परिवर्तन की तो आज़ादी का एहसास परिवर्तन से नहीं जागरूकता से ही संभव है। जिस देश ने हमें एकता के सूत्र में बांधा है उसी देश के कानूनका भली भांति अध्यन कर हम अपने अगले कदम की ओर बढ़ सकते हैं। चेतावनी से अच्छा है हम अपनीबात पहुचानें का माध्यम ढूंढे ताकि देश की गरिमा और अपने धर्म की मर्यादा बनी रहे।

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