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Wednesday, 17 August 2016

मेरी रूह में उत्तर गया था इस्लाम धर्म इसलिए मेने बिना देर किये अपना लिया:ऐ आर रेहमान

– Journey of Faith : A. R. Rehman (Oscar Winner Musician)इस्लाम कबूल करने का फैसला अचानक नहीं लिया गया। यह फैसला मेरा और मेरी मां दोनों का सामूहिक फैसलाथा। हम दोनों सर्वशक्तिमान ईश्वर की शरण में आना चाहते थे।संगीतकार ए आर रहमान ने सन् २००६ में अपनी मां के साथ हज अदा किया था। हज पर गए रहमान से अरब न्यूज के सैयद फैसल अली ने बातचीत की। यहां पेश है उस वक्त सैयद फैसल अली की रहमान से हुई गुफ्तगू।भारत के मशहूर संगीतकार ए आर रहमान किसी परिचय के मोहताज नहीं है।तड़क-भड़क और शोहरत की चकाचौंध से दूर रहने वाले ए आर रहमान की जिंदगी ने एक नई करवट ली जब वे इस्लाम की आगोश में आए। रहमान कहते हैं-इस्लाम कबूल करने पर जिंदगी के प्रति मेरा नजरिया बदल गया।भारतीय फिल्मी-दुनिया में लोग कामयाबी के लिए मुस्लिम होते हुए हिन्दू नाम रख लेते हैं, लेकिन मेरे मामले में इसका उलटा है यानी था मैं दिलीप कुमार और बन गया अल्लाह रक्खा रहमान। मुझे मुस्लिम होने पर फख्र है।संगीत में मशगूल रहने वाले रहमान हज के दौरान मीनामें दीनी माहौल से लबरेज थे। पांच घण्टे की मशक्कतके बाद अरब न्यूज ने उनसे मीना में मुलाकात की। मगरिब से इशा के बीच हुई इस गुफ्तगू में रहमान का व्यवहार दिलकश था। कभी मूर्तिपूजक रहे रहमान अब इस्लाम के बारे में एक विद्वान की तरह बात करते हैं।दूसरी बार हज अदा करने आए रहमान इस बार अपनी मां कोसाथ लेकर आए। उन्होने मीना में अपने हर पल का इबादत के रूप में इस्तेमाल किया। वे अराफात और मदीना में भी इबादत में जुटे रहे और अपने अन्तर्मनको पाक-साफ किया। अपने हज के बारे में रहमान बताते हैं-अल्लाह ने हमारे लिए हज को आसान बना दिया। इस पाक जमीन पर गुजारे हर पल का इस्तेमाल मैंने अल्लाह की इबादत के लिए किया है।मेरी अल्लाह से दुआ है कि वह मेरे हज को कबूल करे। उनका मानना है कि शैतान के कंकरी मारने की रस्म अपने अंतर्मन से संघर्ष करने की प्रतीक है। इसका मतलब यह है कि हम अपनी बुरी ख्वाहिशों और अन्दर के शैतान को खत्म कर दें। वे कहते हैं-मैं आपको बताना चाहूंगा कि इस साल (२००६) मुझे मेरे जन्मदिन पर बेशकीमती तोहफा मिला है जिसको मैं जिन्दगी भर भुला नहीं पाऊंगा। इस साल मेरे जन्मदिन ६ जनवरी कोअल्लाह ने मुझे मदीने में रहकर पैगम्बर की मस्जिद में इबादत करने का अनूठा इनाम दिया। मेरे लिए इससेबढ़कर कोई और इनाम हो ही नहीं सकता था। मुझे बहुत खुशी है और खुदा का लाख-लाख शुक्र अदा करता हूं।इस्लाम स्वीकार करने के बारे में रहमान बताते हैं – यह १९८९ की बात है जब मैंने और मेरे परिवार ने इस्लाम स्वीकार किया। मैं जब नौ साल का था तब ही एकरहस्यमयी बीमारी से मेरे पिता गुजर गए थे। जिंदगी में कई मोड़ आए।वर्ष-१९८८ की बात है जब मैं मलेशिया में था। मुझे सपने में एक बुजुर्ग ने इस्लाम धर्म अपनाने के लिएकहा।पहली बार मैंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन यही सपना मुझे कई बार आया। मैंने यह बात अपनी मां को बताई। मां ने मुझे प्रोत्साहित किया और कहा कि मैं सर्वसक्तिमान ईश्वर के इस बुलावे पर गौर और फिक्र करूं। इस बीच १९८८ में मेरी बहन गम्भीर रूप से बीमार हो गई। परिवार की पूरी कोशिशों के बावजूदउसकी बीमारी बढ़ती ही चली गई। इस दौरान हमने एक मुस्लिम धार्मिक रहबर की अगुवाई में अल्लाह से दुआ की।अल्लाह ने हमारी सुन ली और आश्चर्यजनक रूप से मेरीबहन ठीक हो गई। और इस तरह मैं दिलीप कुमार से ए आर रहमान बन गया। इस्लाम कबूल करने का फैसला अचानक नहीं लिया गया बल्कि इसमें हमें दस साल लगे। यह फैसला मेरा और मेरी मां दोनों का सामूहिक फैसला था। हम दोनों सर्वशक्तिमान ईश्वर की शरण में आना चाहते थे। अपने दुख दूर करना चाहते थे।शुरू में कुछ शक और शुबे दूर करने के बाद मेरी तीनों बहिनों ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया। मैंने उनके लिए आदर्श बनने की कोशिश की। ६ जनवरी १९६६ को चेन्नई में जन्मे रहमान ने चार साल की उम्र में प्यानो बजाना शुरू कर दिया था। नौ साल की उम्र में ही पिता की मृत्यु होने पर रहमान के नाजुक कंधों पर भारी जिम्मेदारी आ पड़ी। मां कस्तूरी अब करीमा बेगम और तीन बहिनों के भरण-पोषण का जिम्मा अब उस पर था। ग्यारह साल की उम्र में ही वे पियानो वादक की हैसियत से इल्याराजा के ग्रुप में शामिल हो गए। उनकी मां ने उन्हें प्रोत्साहित किया और वे आगे बढऩे की प्रेरणा देती रहीं।रहमान ने सायरा से शादी की। उनके तीन बच्चे हैं. दसऔर सात साल की दो बेटियां और एक तीन साल का बेटा। रहमान ने बताया कि इबादत से उनका तनाव दूर हो जाता है और उन्हें शान्ति मिलती है। वे कहते हैं- मैं आर्टिस्ट हूं और काम के भयंकर दबाव के बावजूद मैं पांचों वक्त की नमाज अदा करता हूं। नमाज से मैं तनावमुक्त रहता हूं और मुझमें उम्मीद व हौसला बना रहता है कि मेरे साथ अल्लाह है। नमाज मुझे यह एहसास भी दिलाती रहती है कि यह दुनिया ही सबकुछ नहीं है, मौत के बाद सबका हिसाब लिया जाना है। रहमान ने अपना पहला हज २००४ में किया।इस बार उनकी मां उनके साथ थी। वे कहते हैं – इस बार मैं अपनी पत्नी को भी हज के लिए लाना चाहता था, लेकिन मेरा बेटा केवल तीन साल का है, इस वजह से वह नहीं आ सकी। अगर अल्लाह को मंजूर हुआ तो मैं फिर आऊंगा, अगली बार पत्नी और बच्चों के साथ।वे कहते हैं- इस्लाम शान्ति, प्रेम, सहअस्तित्व, सब्र और आधुनिक धर्म है। लेकिन चन्द मुसलमानों की गलत हरकतों के कारण इस पर कट्टरता और रूढि़वादिता की गलत छाप लग गई है। मुसलमानों को आगे आकर इस्लाम की सही तस्वीर पेश करनी चाहिए। अपने ईमान और यकीन को सही रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत करना चाहिए।मुसलमानों की इस्लामिक शिक्षाओं से अनभिज्ञता दिमाग को झकझोर देती है। रहमान कहते हैं- मुसलमानों को इस्लाम के बुनियादी उसूलों को अपनाना चाहिए जो कहते हैं- अपने पड़ौसियों के साथ बेहतर सुलूक करो, दूसरों से हंसकर मिलो, एक ईश्वर की इबादत करो और गरीबों को दान दो। इंसानियत को बढ़ावा दो, औरकिसी से दुश्मनी मत रखो। इस्लाम यही संदेश लेकर तोआया है। हमें अपने व्यवहार, आदतों और कर्मों से दुनिया के सामने इंसानियत की एक अनूठी मिसाल पेश करनी चाहिए। पैगम्बर मुहम्मद सल्ललाहो अलेहेवसल्लम ने अपने अच्छे व्यवहार, सब्र और सच्चाई के साथ ही इस्लाम का प्रचार किया। आज इस्लाम को लेकर दुनिया भर में फैली गलतफहमियों को दूर किए जाने की जरूरत है।!! इश्वर सभी मानव जाती को सही राह दिखाए !!!-बशुक्रिया उम्मते नबी

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